बौद्ध धर्म
गौतम बुद्ध
बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध माने जाते हैं। उनका जन्म 563 ई. पू. में नेपाल की तराई में कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी नामक स्थान पर हुआ था। कपिलवस्तु की पहचान पिपरहबा नामक क्षेत्र से की गई है तथा लुम्बिनी को बौद्ध ग्रंथों में रूम्मिनदेई भी कहा गया है।
गौतम बुद्ध का बचपन का नाम - सिद्धार्थ (गोत्र - गौतम)
पिता - शुद्धोधन (कपिलवस्तु के शाक्य गण के प्रधान)
माता - महामाया (कोलिय गणराज्य की कन्या)
पत्नी - यशोधरा/गोपा/बिम्बा/भद्रकच्छा (शाक्य कुल की)
पुत्र - राहुल
बुद्ध के जन्म के सात दिनों के उपरान्त ही उनकी माता का देहान्त हो गया, अतः उनका पालन-पोषण मौसी महाप्रजापति गौतमी ने किया।
बुद्ध की मृत्यु 80 वर्ष की अवस्था में 483 ई. पू. में मल्लों की राजधानी कुशीनगर (उत्तर प्रदेश) में हुई थी।
बुद्ध के जन्म के समय ही दो ब्राह्मणों कालदेव व कौण्डिन्य ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक चक्रवर्ती राजा अथवा सन्यासी होगा।
गौतम बुद्ध ने निम्नलिखित 4 दृश्य देखे, जिसके परिणामस्वरूप उनके मन में वैरागय की भावना उठी
1. वृद्ध व्यक्ति को देखना।
2. बीमार व्यक्ति को देखना।
3. मृत व्यक्ति को देखना।
4. प्रसन्न मुद्रा में सन्यासी को देखना।
बुद्ध ने 29 वर्ष की अवस्था में सारथी चाण तथा घोड़ा कन्थक की सहायता से गृह त्याग किया। बौद्ध ग्रंथों में इस घटना को महाभिनिष्क्रमण कहा गया है। इसके बाद बुद्ध वैशाली पहुंचे, जहां उनकी मुलाकात आलारकालाम नामक सन्यासी से हुई, जो सांख्य दर्शन का आचार्य था। बुद्ध ने इन्हें अपना गुरू बनाया, किन्तु बुद्ध इनसे संतुष्ट नहीं हुए। आगे राजगृह के समीप इनकी मुलाकात रूद्रक रामपुत्र नामक धर्माचार्य से हुई। तदुपरान्त वे उरूवेला (बोध गया) पहुंचे तथा तपस्या प्रारम्भ की। उनके साथ 5 ब्राह्मण सन्यासी भी तपस्या कर रहे थे। जातक कथाओं से पता चलता है कि उरूवेला के सेनानी की पुत्री सुजाता द्वारा लाई गई भोज्य सामग्री को ग्रहण कर लेने के कारण पांचों ब्राह्मण इनका साथ छोड़कर सारनाथ (ऋषिपत्तन) चले गए। बुद्ध ने तपस्या जारी रखी 8वें दिन उन्हें उरूवेला (बोध गया) में निरन्जना नदी के किनारे पीपल वृक्ष के नीचे वैशाख पूर्णिमा के दिन ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके उपरान्त वे बुद्ध , तथागत (सत्य है जिसका ज्ञान) तथा शाक्यमुनि कहलाए।
ज्ञान प्राप्ति के बाद बोध गया में ही इन्होंने दो बंजारों तपस्सु और भल्लिक की अपना सेवक बना लिया। सर्वप्रथम बुद्ध गया से सारनाथ (ऋषिपत्तन या मृगदाव) पहुंचे, जहां पहले से ही पांचों ब्राह्मण मौजूद थे। यहीं पर बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश घटना को धर्मचक्रपवर्तन कहा गया। फिर बुद्ध वाराणसी आ गए तथा यश नामक श्रेष्ठिपुत्र को अपना शिष्य बनाया। यहीं यश की माता व पत्नी महात्मा बुद्ध की प्रथम उपासिकाएं बनी। यहां से बुद्ध पुनः सारनाथ आ गए, जहां बुद्ध ने प्रथम वर्षा काल व्यतीत किया।
आगे बुद्ध राजगृह गए बुद्ध राजगृह पहुंचे जहां बिम्बसार ने इनका स्वागत किया और इन्हें वेणुवन विहार दान में दिया। राजगृह में ही सारिपुत्र, मोद्गलायन, उपालि, अभय आदि इनके शिष्य बने। यहां से बुद्ध लुम्बिनी पहुंचे और अपने परिवार के लोगों को उपदेश दिया। उनका चचेरा भाई देवदत्त शिष्य बन गया। आगे देवदत्त ने ही बुद्ध के विरूद्ध विद्रोह कर स्वयं संघ का प्रमुख बनने का असफल प्रयास किया था।
फिर बुद्ध कोसल (श्रावस्ती) आ गए, जहां का एक व्यापारी अनाथ पिण्डक शिष्य बना एवं जेतवन विहार बुद्ध को दान में दिया। श्रावस्ती में एक व्यापारी की पत्री विशाखा ने इनकी शिष्यता ग्रहण की तथा संघ के लिए पव्वाराम ( पराम) विहार बनवाया। यहीं डाकू अंगलिमाल ने बुद्ध की शिष्यता ग्रहण की। कोसल नरेश प्रसेनजित भी इनके शिष्य बने । बुद्ध ने अपना सर्वाधिक समय व वर्षाकाल कोसल (श्रावस्ती ) में व्यतीत किया और यहीं उनके सर्वाधिक संख्या में शिष्य बने।
इसके बाद बुद्ध वैशाली आए, जहां लिच्छियों ने उन्हें कुटाग्रशाला विहार दान में दिया। वैशाली में ही बुद्ध ने अपने शिष्य आनन्द के कहने पर महिलाओं को संघ में प्रवेश दिया। प्रजापति गौतमी सर्वप्रथम संघ में शामिल हुई। यहीं गौतमी की पुत्री नन्दा, बुद्ध की पत्नी यशोधरा, वैशाली की नगर वधू आम्रपाली भी बुद्ध की शिष्या बनी।
कोसाम्बी का शासक उदयन बौद्ध भिक्षु पिण्डोला के प्रभाव से बौद्ध बन गया तथा बौद्ध भिक्षुओं हेतु घोषिताराम विहार दान में दिया।
बुद्ध अपने जीवनकाल में अवन्ति नहीं जा सके। यहां उन्होंने मोगलिपुत्ततिस्य भेजा, जिन्होंने चण्डप्रद्योत को बौद्ध धर्म में दीक्षा दी।
जीवन के अन्तिम वर्ष में बुद्ध अपने शिष्य चुन्द (लोहार या सुनार) के यहां पावा पहुंचे। यहां सूकरमाद्दव भोज्य सामग्री खाने से अतिसार रोग से पीड़ित हो गए। फिर बुद्ध पावा से कुशीनगर चले गए और वहीं पर सुभद्द को अन्तिम उपदेश दिया। 80 वर्ष की अवस्था में कुशीनगर में ही इनकी मृत्यु हो गई, जिसे बौद्ध ग्रंथों में महापरिनिर्वाण कहा गया है। बुद्ध की मृत्यु के बाद उनका शरीर धातु के 8 भाग किए गए तथा प्रत्येक भाग पर स्तूप बनवाए गए।
बौद्ध धर्म के सिद्धांत
चार आर्य सत्य बौद्ध धर्म का मूल आधार चार आर्य सत्य हैं।
ये हैं - दुःख, दु:ख समुदाय, दु:ख निरोध तथा दु:ख निरोधगामिनी प्रतिपदा।
1. दुःख - बुद्ध के अनुसार जगत में सर्वत्र दुःख है।
2. दुःख समुदाय - दु:ख समुदाय अर्थात् दुःख उत्पन्न होने के कारण हैं।
दुःख मूल कारण है अविद्या तथा तृष्णा । दु:ख के कारणों को बौद्ध सिद्धान्त प्रतीत्य समुत्पाद (कारणता सिद्धान्त ) में द्वादश निदान के अन्तर्गत समझाया गया है। द्वादश निदान के अन्तर्गत दुःख हेतु 12 तत्वों को क्रमिक रूप से उत्तरदायी माना गया है, जिनमें से पूर्ववर्ती तत्व अपने परवर्ती तत्व का कारण है। ये 12 तत्व या चक्र इस प्रकार हैं - अविद्या, संस्कार, विज्ञान, नाम-रूप, षडायतन, स्पर्श. तुष्णा. उपादान. भव. जाति. जरा तथा मरण।
चूंकि तृष्णा का मूल कारण अविद्या है। अतः इस चक्र के अंत एवं मोक्ष प्राप्ति हेतु अविद्या का अन्त आवश्यक है। ज्ञान ही अविद्या का अन्त करके व्यक्ति को निर्वाण (मोक्ष) की ओर ले जाने में समर्थ है। प्रतीत्य समुत्पाद बौद्ध दर्शन का मूल तत्व है।
क्षणिकवाद नामक बौद्ध सिद्धान्त प्रतीत्य समुत्पाद से ही उत्पन्न हुआ है।
3. दुःख निरोध - दु:ख के निरोध या निवारण के लिए तृष्णा का उन्मूलन आवश्यक है।
4. दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा - आष्टांगिक मार्ग ही दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदा है।
बौद्ध धर्म में मानव शरीर को पंचस्कन्धों (रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार व विज्ञान) से निर्मित माना गया है।
उसी प्रकार बौद्ध धर्म के त्रिरत्न - बुद्ध, धम्म व संघ हैं।
आष्टांगिक मार्ग
अष्टांगिक मार्ग के अन्तर्गत निम्नलिखित 8 आचरणों के पालन पर बल दिया गया है
सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्मान्त, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति व सम्यक् समाधि।
आष्टांगिक मार्ग के अनुशीलन से व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर होता है। बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग के अन्तर्गत अधिक सुखपूर्ण जीवन व्यतीत करना या अत्यधिक काया-क्लेश में संलग्न होना दोनों को वर्जित किया है। उन्होंने इस सम्बंध में मध्यम प्रतिपदा (मध्यम मार्ग) को अपनाया।
बौद्ध धर्म मूलतः अनीश्वरवादी है।
यह अनात्मवादी भी है, परन्तु पुनर्जन्म की हिन्दू एवं जैन धर्म की भाँति इसमें मान्यता है।
मिलिन्दपन्हो में कहा गया है कि जिस प्रकार पानी में एक लहर उठकर दूसरे को जन्म देकर स्वयं समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार कर्मफल चेतना के रूप में पुनर्जन्म का कारण होता है।
बौद्ध धर्म में निर्वाण के लिए सदाचार तथा नैतिक जीवन पर अत्यधिक बल दिया गया है।
सदाचार व नैतिक जीवन के अन्तर्गत 10 शीलों के पालन करने की बात कही गई है, जो हैं - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, दोपहर के बाद भोजन न करना, व्यभिचार न करना, मद्य का सेवन न करना, आरामदायक शय्या का त्याग व आभूषणों का त्याग।
बौद्ध धर्म के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है। निर्वाण का अर्थ है - दीपक का बुझ जाना अर्थात् जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाना। बौद्ध धर्म के अनुसार निर्वाण इसी जीवन में प्राप्त हो सकता है। परन्तु महापरिनिर्वाण मृत्यु के बाद ही सम्भव है।
बौद्ध संघ
बौद्ध धर्म में संघ का महत्वपूर्ण स्थान है।
यह त्रिरत्न का एक अनिवार्य अंग है।
सारनाथ में अपना प्रथम उपदेश देने के बाद बुद्ध ने पांच ब्राह्मण शिष्यों के साथ संघ की स्थापना की।
बौद्ध संघ का संगठन गणतांत्रिक प्रणाली पर आधारित था।
संघ में प्रवेश पानी के लिए गृहस्थ जीवन का त्याग और कम से कम 15 वर्ष की आयु का होना आवश्यक था।
माता-पिता की आज्ञा के बिना कोई भी व्यक्ति इसमें प्रवेश नहीं पा सकता था।
अस्वस्थ्य, शारीरिक विकलांग, ऋणी, सैनिक और दासों का संघ में प्रवेश वर्जित था।
संघ के सभी निर्णय बहुमत के आधार पर होते थे। किसी विषय में मतभेद होने पर मतदान होता था।
न्यूनतम उपस्थिति (कोरम) 20 थी।
जब किसी विशेष अवसर पर सभी भिक्षु-भिक्षुणियां धर्मवार्ता के लिए एकत्रित होकर धर्मवार्ता करते थे तो उसे उपोसथ कहते थे।
संघ में प्रविष्ट होने को उपसम्पदा कहा जाता था।
गृहस्थ जीवन का त्याग प्रवज्या कहलाता था।
बौद्ध संघ में स्त्रियों को भी शामिल किया गया था, जो कि पुरूषों के पर्यवेक्षण में कार्य करती थीं, किन्तु वे पुरूषों पर अधीन नहीं थीं।
वर्षा ऋतु के दौरान बौद्ध मठों में पवरन नामक समारोह आयोजित किया जाता था, इस दिन मठों में प्रवास कर रहे भिक्षुओं द्वारा अपराधों की स्वीकारोक्ति की जाती थी।
बौद्ध के अनुयायी दो वर्गों में बंटे हुए थे - भिक्षु व भिक्षुणी तथा उपासक व उपासिकाएं। गृहस्थ जीवन में रहकर ही बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों को उपासक कहा जाता था।
बौद्ध संगीतियां
बौद्ध धर्म में 4 बौद्ध संगीतियों का आयोजन बौद्ध साहित्य की रचना एवं संकलन के लिए किया गया था।
प्रथम बौद्ध संगीति
काल - 483 ई. पू.। स्थान - राजगृह (सप्तपर्णी गुफा)। अध्यक्ष - महाकस्सप। शासक - अजातशत्रु।
इसमें बुद्ध के प्रमुख शिष्य आनन्द तथा उपालि ने क्रमशः सुप्तपिटक व विनयपिटक नामक बौद्ध ग्रंथों की रचना की। सुप्तपिटक में बुद्ध के उपदेश, जबकि विनयपिटक में बौद्ध धर्म के आचार-विचार व नियम संकलित हैं।
द्वितीय बौद्ध संगीति
काल - 283 ई. पू.। स्थान - वैशाली (बालुकाराम विहार)। अध्यक्ष - सुबुकामी। शासक - कालाशोक।
इस संगीति में बौद्ध भिक्षुओं में कुछ बातों, जैसे दोपहर भोजन के बाद विश्राम करना, खाने के बाद छाछ पीना, ताड़ी पीना, गद्देदार बिस्तर का प्रयोग, सोने-चांदी का दान लेना आदि को लेकर मतभेद हो गया। जो लोग इस परिवर्तन के पक्ष में थे, वे महासंघिका/सर्वास्तिवादी/पूर्वी भिक्षु वज्जिपुत्र कहलाए। इनका नेतृत्य वैशाली में महाकस्सप ने किया। जो लोग परिवर्तन के विरोधी थे, वे स्थविरवादी/थेरावादी/पश्चिमी भिक्ष कहलाए। इनका नेतृत्व उज्जैन में महाकच्चायन ने किया। बौद्ध संघ का यह विभेद बढ़ता गया तथा चतुर्थ बौद्ध संगीति में बौद्ध संघ का विभाजन हीनयान तथा महायान के रूप में हो गया।
तृतीय बौद्ध संगीति
काल - 247 ई. पू.। स्थान - पाटलिपुत्र (अशोकाराम विहार)। अध्यक्ष - मोगलिपुत्ततिस्य। शासक - अशोक।
इसमें मोगलिपुत्ततिस्य ने अभिधम्मपिटक की रचना की तथा इसका एक ग्रंथ कथावस्तु का संकलन किया। इस संगीति में स्थविर सम्प्रदाय का ही बोलबाला था।
चतुर्थ बौद्ध संगीति
काल 102 ई. पू.। स्थान - कश्मीर का कुण्डलवन।
अध्यक्ष - वसुमित्र।
शासक - कनिष्क। इस बौद्ध संगीति के उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। इस सभा में महासंघिकों का बोलबाला था। इस संगीति में विभाषाशास्त्र नामक एक अन्य ग्रंथ की रचना हुई। इसी समय में बौद्धों ने संस्कृत के रूप में भाषा को अपना लिया। इसी समय बौद्ध धर्म स्पष्ट रूप से हीनयान तथा महायान नामक दो सम्प्रदायों में विभाजित हो गया।
हीनयान में वस्तुतः स्थविरवादी तथा महायान में महासंघिक थे।
हीनयान
हीनयान का शाब्दिक अर्थ है - निम्न मार्ग।
ये लोग बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों को मूलरूप में बनाए रखना चाहते थे।
हीनयान में बुद्ध को एक महापुरूष माना जाता था।
हीनयान का आदर्श अर्हत् पद को प्राप्त करना था, जो व्यक्ति अपनी साधना से निर्वाण प्राप्त करते हैं, उन्हें अर्हत् कहा जाता है।
हीनयान व्यक्तिवादी धर्म है, जिसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिए।
हीनयान में मांस खाना वर्जित है।
हीनयानी कोई तीर्थ नहीं मानते।
हीनयायी मूर्तिपूजक नहीं थे।
हीनयान के ग्रंथ सामान्यतः पालिभाषा में हैं।
हीनयानियों का प्रचार-प्रसार मुख्यतः दक्षिण भारत, लंका, बर्मा और थाईलैण्ड में हुआ।
महायान
महायान का शाब्दिक अर्थ है - उत्कृष्ट मार्ग।
इसे बोधिसत्वयान भी कहते हैं।
ये लोग बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों में समय के साथ परिवर्तन या सुधार चाहते थे।
महायान में बुद्ध को देवता माना जाता था।
महायान का आदर्श बोधिसत्व है।
बोधिसत्व मोक्ष प्राप्ति के बाद भी दूसरे परन्तु प्राणियों की मुक्ति का निरन्तर प्रयास करते हैं।
महायान में मांस खाने पर कोई प्रतिबंध नहीं था।
महायानी चार तीर्थों को मानते हैं- लुम्बिनी, बोधगया, सारनाथ, कुशीनगर।
महायानी मूर्तिपूजक थे।
बुद्ध की मूर्तियों को निर्मित करने का प्रथम श्रेय पहली शताब्दी ई. में मथुरा कला को दिया जाता है।
महायान के ग्रंथ सामान्यतः संस्कृत भाषा में है।
महायानियों का प्रचार-प्रसार मुख्यतः उत्तर भारत, चीन, तिब्बत, जापान, कोरिया में हुआ।
बोधिसत्व
महायान का आदर्श बोधिसत्व है। बोधिसत्व ऐसे व्यक्ति हैं जो निर्वाण प्राप्त कर चुके हैं परन्तु अन्य लोगों के निर्वाण में सहायता करने के लिए आते हैं। ये मानव अथवा पशु किसी रूप में भी हो सकते हैं। प्रमुख बोधिसत्व निम्नलिखित हैं -
1. अवलोकितेश्वर - यह प्रधान बोधिसत्व हैं। इसे पद्मपाणि हाथ में कमल लिए हुए भी कहते हैं। इसका प्रधान गुण दया है।
2. मंजुश्री - इनके एक हाथ में खड्ग तथा दूसरे हाथ में किताब रहती है। इनका प्रमुख कार्य बुद्धि को प्रखर करना है।
3. वज्रपाणि - ये कठोर बोधिसत्व हैं तथा पाप एवं असत्य के सहारक हैं। इन्हें हाथ में बज्र लिए हुए प्रदर्शित किया गया है।
4. क्षितिग्रह - ये शुद्ध स्थानों के अभिभावक हैं।
5. अमिताभ - इन्हें संसार के अधिपति तथा स्वर्ग के निवासी के रूप में दर्शाया गया है।
6. मैत्रेय - ये कलशधारण करते हैं तथा भावी बोधिसत्व हैं।
हीनयान के सम्प्रदाय
हीनयान के दो सम्प्रदाय वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक हैं।
महायान के सम्प्रदाय
महायान के प्रमुख सम्प्रदाय माध्यमिकवाद/शून्यवाद तथा योज्ञाचार/विज्ञानवाद हैं।
माध्यमिकवाद/शून्यवाद के प्रवर्तक नागार्जुन है, जिनकी प्रमुख रचना माध्यमिककारिका है। इस सम्प्रदाय के अन्य विद्वान आर्यदेव, चन्द्रकीर्ति, शान्तिदेव, शान्तिरक्षित आदि हैं।
जबकि योगाचार/विज्ञानवाद के प्रवर्तक मैत्रेय/मैत्रेयनाथ हैं। इस सम्प्रदाय के अन्य विद्वान असंग तथा बसुबंधु हैं।
नागार्जुन ने कनिष्क के समय चीन जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार किया था।
अन्य प्रमुख सम्प्रदाय
1. वज्रयान सम्प्रदाय
यह सम्प्रदाय मूलतः बंगाल एवं बिहार में प्रचलित था।
बौद्ध धर्म में छठी शताब्दी ई. में अनेक दोष आने शुरू हो गए, जिसके फलस्वरूप वज्रयान नामक नए सम्प्रदाय का उदय हुआ।
इसमें बुद्ध की अनेक पत्नियों की कल्पना की गई है
जिनमें तारा, चक्रेश्वरी देवी आदि प्रमुखतः है।
2. कालचक्रयान
यह सम्प्रदाय मुख्यतः बंगाल एवं बिहार में प्रचलित था।
3. सहजयान
इस सम्प्रदाय की स्थापना दसवीं शताब्दी बंगाल में में हुई थी।
बौद्ध साहित्य
पालीभाषा में लिखित बौद्ध ग्रंथ
1. सुप्तपिटक - सुत्त का अर्थ धर्म उपदेश है।
इस पिटक में बौद्ध धर्म के उपदेश संगृहीत हैं।
ये पांच निकायों में विभाजित हैं - दीघ निकाय, मिज्झम निकाय, संयुक्त निकाय, अंगुत्तर निकाय, खुद्दक निकाय।
2. विनयपिटक -इसमें भिक्षु और भिक्षुणियों के संघ एवं दैनिक जीवन सम्बंधी आचार-विचार, नियम संगृहीत है।
इसके अन्तर्गत पातिमोक्ख (प्रतिमोक्ष) में अनुशासन सम्बंधी विधि-निषेधों तथा उसके भंग होने पर किए जाने वाले प्रायश्चितों का वर्णन है।
3. अभिधम्म पिटक - इस पिटक में बौद्ध दार्शनिक सिद्धांतों का वर्णन है। यह प्रश्नोत्तर के रूप में है।
4. जातक कथाएं - इनकी संख्या 549 हैं, जिनमें बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाएं हैं। जातक कथाएं भारतीय कथा साहित्य का सबसे प्राचीन संग्रह हैं।
5. दीपवंश एवं महावंश - इनमें सिंहलद्वीप (श्रीलंका) का इतिहास उल्लेखित है।
6. मिलिन्दपन्हो - इसके रचियता नागसेन हैं। इस ग्रंथ में यूनानी राजा मिनेण्डर व बोद्ध भिक्षु नागसेन के मध्य वार्तालाप का वर्णन है।
संस्कृत भाषा मे लिखित बौद्ध ग्रंथ
1. बुद्धचरित - इस महाकाव्य की रचना अश्वघोष ने की थी।
2. सोन्दरानन्द - इस महाकाव्य की भी रचना अश्वघोष ने की थी।
3. सारिपुत्र प्रकरण - इस नाटक की रचना अश्वघोष ने की थी।
4. वज्र-सूची - इसकी भी रचना अश्वघोष ने की थी।
5. विशुद्धिमग्ग - इसकी रचना बुद्धघोष ने की थी।
6. अभिधम्म घोष - इसकी रचना वसुबन्धु ने की थी।
7. ललित विस्तर - यह महायान से संबंधित ग्रंथ है, जिसमे बौद्ध लिपि का प्राचीनतम् साक्ष्य प्राप्त होता है।
8. वज्रच्छेदिका - यह भी महायान से संबंधित ग्रंथ है।
बौद्ध धर्म के अन्तर्गत दिङ्गनाग महत्वपूर्ण बौद्ध दार्शनिक हुए, जिन्हे तर्कशास्त्र का प्रवर्तक कहा जाता है, उसी प्रकार बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति को भारत का कांट कहा जाता है।