Rise of Regional States in Hindi |
नवींन राज्यो का उदय
दक्कन के निजाम
हैदराबाद राज्य की नींव मुहम्मदशाह रंगीला के शासनकाल में चिनकिलिज खां अथवा निजामुलमुल्क (उपाधि - आसफजाह) ने रखी।
1722 ई. में चिनकिलिज खां को मुगल वजीर नियुक्त किया गया था, किन्तु मुगल दरबार के षड्यंत्रात्मक वातावरण से क्षुब्ध होकर वह बिना मुगल बादशाह मुहम्मदशाह की अनुमति के 1723 ई. में शिकार अभियान के बहाने दक्कन चला गया। मुहम्मदशाह ने दक्कन के मुगल गवर्नर मुबारिज खां से निजामुलमुल्क को पराजित करने को कहा। 1724 ई. में सकूरखेड़ा के युद्ध में चिनकिलिज खां ने मुबारिज खां को मार डाला और दक्कन का स्वामी बन गया। आगे 1724 ई. में चिनकिलिज खां ने हैदराबाद में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। 1748 ई. में चिनकिलिज खां की मृत्यु हो गई। उसी वर्ष उसके द्वारा कर्नाटक में नियुक्त अधिकारी सादातुल्ला खां ने कर्नाटक में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना कर ली।
रुहेले तथा बंगश पठान
एक अफगान वीर दाउद तथा उसके पुत्र अली मुहम्मद खां ने बरेली में एक छोटी-सी जागीर का विस्तार कर रुहेलखण्ड में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। उसी प्रकार एक अन्य अफगान मुहम्मद खां बंगश ने फर्रुखाबाद, बुन्देलखण्ड व इलाहाबाद के प्रदेशों में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
राजपूत
18वीं शताब्दी का सबसे श्रेष्ठ राजपूत शासक आमेर का राजा सवाई जयसिंह था।
इसे सवाई की उपाधि मुगल शासक फर्रुखशियर ने दी थी।
सवाई जयसिंह ने 1722 ई. में जयपुर शहर की स्थापना की।
वह एक महान खगोलशास्त्री था, उसने दिल्ली, मथुरा, बनारस, जयपुर व उज्जैन में खगोलशास्त्र के अध्ययन के लिए वेधशालाएं बनवाई थीं। उसी प्रकार खगोलशास्त्र के अध्ययन हेतु एक सारणी बनवाई थी, जिसे जिज मुहम्मदशाही कहा जाता था।
उसने युक्लिड के ग्रंथ 'रेखागणित के तत्व' का अनुवाद संस्कृत में करवाया।
वह समाज सुधारक भी था, उसने अपने राज्य में यह विधान लागू किया था कि किसी लड़की की शादी में अत्यधिक मात्रा में धन खर्च न किया जाए।
जाट
जाट दिल्ली, आगरा व मथुरा के समीपवर्ती क्षेत्रों में थे।
इन्होंने औरंगजेब की नीतियों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया था।
सर्वप्रथम 1669 ई. में तिलपत के जमींदार गोकुल जाट ने विद्रोह किया, किन्तु इस विद्रोह को कुचल दिया गया।
आगे 1686 ई. में राजाराम जाट ने विद्रोह किया। मनूची के अनुसार राजाराम ने सिकन्दरिया स्थित अकबर के मकबरे की हड्डियां जला दी थी, किन्तु इसके विद्रोह को भी कुचल दिया गया।
1700 ई. में चूडामल जाट ने भरतपुर राज्य की नींव डाली व थीम नामक स्थान पर दुर्ग बनवाया।
1721 ई. में आगरा के मुगल गवर्नर जयसिंह द्वितीय ने चूडामल को पराजित कर दुर्ग जीत लिया, जिससे चूडामल ने आत्महत्या कर ली।
चूडामल के बाद उसके भतीजे बदनसिंह ने जाटों का नेतृत्व संभाला तथा दीग, कुम्बेर, वेद व भरतपुर में चार दुर्ग बनवाए।
अहमदशाह अब्दाली ने बदनसिंह को राजा की उपाधि दी, जिसमें महेन्द्र शब्द भी जोड़ दिया गया।
बदनसिंह के बाद जाटों का नेतृत्व सूरजमल ने संभाला।
सूरजमल को जाटों का अफलातून भी कहा जाता है।
1763 ई. में सूरजमल की मृत्यु के उपरान्त जाट राज्य का पतन प्रारंभ हो गया।
1805 ई. में जाट राजा रणधीर सिंह ने अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर ली।
केरल
18वीं शताब्दी के आरंभ में केरल मुख्यतः 4 राज्यों में विभक्त था - कालीकट, कोचीन, चिराक्कल एवं त्रावणकोर ।
इनमें से त्रावणकोर राज्य सबसे महत्वपूर्ण था।
1729 ई. में यहां का राजा मार्तंड वर्मा हुए।
मार्तंड वर्मा ने आधुनिक शास्त्रागार का निर्माण करवाया, नहरें बनवाई, विदेशी व्यापार को प्रोत्साहन दिया तथा डचों को पराजित किया।
18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यहां के राजा राम वर्मा हुए।
इनके समय में त्रावणकोर की राजधानी त्रिवेन्द्रम संस्कृत एवं मलयालम साहित्य का प्रमुख केन्द्र था।
राजा राम वर्मा स्वयं एक कवि, विद्वान, संगीतज्ञ, अभिनेता आदि थे। उन्हें संस्कृत, मलयालम तथा अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान था।
अवध
अवध अंग्रेजों तथा मराठों के राज्यों के मध्य में था। अतः इसे बफर राज्य (Buffer State) के रूप में जाना जाता था।
अवध ने ब्रिटिश साम्राज्य के पोषण में धाय की भूमिका निभाई। इसे ब्रिटिश साम्राज्य हेतु कामधेनु भी कहा जाता था।
सआदत खां/बुरहान-उल-मुल्क ( 1722-1739 ई.)
अवध के स्वतंत्र राज्य का संस्थापक सआदत खां था, उसने फैजाबाद को अपनी राजधानी बनाया।
1723 ई. में सआदत खां ने अवध में नया राजस्व बंदोबस्त लागू किया।
1739 ई. में उसे नादिरशाह के विरुद्ध दिल्ली बुलाया गया।
वह वीरता से लड़ा, परन्तु बंदी बना लिया गया।
उसने नादिरशाह को दिल्ली पर आक्रमण करने हेतु प्रेरित किया तथा उसे 20 करोड़ रुपए मिलने की आशा दिलाई।
जब नादिरशाह ने दिल्ली पर अधिकार करने के बाद उसे बुलवाया, तो सआदत खां ने विष खाकर आत्महत्या कर ली।
सफदरजंग ( 1739-1754 ई.)
सआदत खां का उत्तराधिकारी उसका भतीजा व दामाद सफदरजंग हुआ।
मुगल सम्राट मुहम्मदशाह ने उसे अवध का नवाब नियुक्त किया तथा 1748 ई. में मुगल सम्राट अहमदशाह ने उसे अपना वजीर नियुक्त किया।
इस कारण उसके उत्तराधिकारी नवाब वजीर कहलाने लगे।
अहमदशाह ने उसे इलाहाबाद का प्रांत भी दे दिया।
सफदरजंग ने प्रशासन में हिन्दुओं और मुस्लमानों के बीच निष्पक्षता की नीति अपनाई तथा सबसे बड़े पद पर एक हिन्दू महाराजा नवाब राय को नियुक्त किया।
शुजाउद्दौला ( 1754-1775 ई.)
सफदरजंग का उत्तराधिकारी उसका पुत्र शुजाउद्दौला हुआ।
इसके शासनकाल में प्लासी का युद्ध (1757 ई.), पानीपत का तृतीय युद्ध (1761 ई.) तथा बक्सर का युद्ध (1764 ई.) हुए।
शुजाउद्दौला ने प्लासी के युद्ध से स्वयं को तटस्थ रखा, पानीपत के तृतीय युद्ध में अहमदशाह अब्दाली का साथ दिया, जबकि बक्सर के युद्ध में बंगाल के नवाब मीर कासिम, मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय के साथ मिलकर अंग्रेजों का सामना किया, किन्तु पराजित हुआ।
बक्सर के युद्ध में पराजित होने के उपरान्त 16 अगस्त, 1765 ई. में अंग्रेज अधिकारी क्लाईव ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ इलाहाबाद की द्वितीय संधि की, जिसके अनुसार शुजाउद्दौला से कड़ा व इलाहाबाद के जिले लेकर शाहआलम द्वितीय को दे दिए गए।
1773 ई. में शुजाउद्दौला ने वॉरेन हेस्टिंग्स के साथ बनारस की संधि की। इस संधि के द्वारा कंपनी ने 50 लाख रुपए में कड़ा व इलाहाबाद के जिले शुजाउद्दौला को बेच दिए। साथ ही वॉरेन हेस्टिंग्स ने 40 लाख रुपए के बदले शुजाउद्दौला से रुहेला के विरुद्ध सहयोग करने का वादा किया।
इस संधि से प्रेरित होकर शुजाउद्दौला ने 1774 ई. में मीरनपुर कटरा के युद्ध में रुहेला सरदार हाफिज रहमत खां को पराजित कर मार डाला तथा रुहेलखण्ड पर अधिकार स्थापित कर लिया।
आसफउद्दौला ( 1775-1797 ई.)
इसने अपनी राजधानी फैजाबाद से लखनऊ स्थानान्तरित की तथा 1784 ई. लखनऊ में मुहर्रम मनाने के लिए इमामबाड़ा का निर्माण करवाया। इसमें स्तम्भों का प्रयोग नहीं किया गया है।
1775 ई. में आसफउद्दौला ने वॉरेन हेस्टिंग्स के साथ फैजाबाद की संधि की। इस संधि के द्वारा बनारस पर अंग्रेजी सर्वोच्चता स्वीकार कर ली गई। इसी संधि के तहत् वॉरेन हेस्टिंग्स ने अवध की बेगमों की सम्पत्ति की सुरक्षा की गारंटी ली थी। किन्तु 1781 ई. में वॉरेन हेस्टिंग्स ने इस संधि की परवाह न करते हुए जान मिडल्टन को बेगमों से धन वसूलने का आदेश दिया। आगे इसी कारण इंग्लैण्ड में बर्क ने वॉरेन हेस्टिंग्स पर महाभियोग चलाया, किन्तु असफल रहा।
आसफउद्दौला के उत्तराधिकारी क्रमश: वजीर अली, सआदत अली खां, हैदर अली खां, मुहम्मद अली, अमजद अली तथा वाजिद अली शाह हुए।
वाजिद अली शाह ( 1847-1856 ई.)
यह अवध का अंतिम नवाब था। 1856 ई. में लॉर्ड डलहौजी ने आउट्रम की रिपोर्ट के आधार पर कुशासन का आरोप लगाकर अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। वाजिद अली शाह को नजरबन्द कर कलकत्ता में रखा गया।
1857 ई. के विद्रोह में अवध के प्रति डलहौजी की विलय नीति एक प्रमुख कारण माना जाता है।
बंगाल
भारत के प्रांतों में बंगाल सबसे उपजाऊ और समृद्ध था।
बंगाल में एक स्वतंत्र राज्य का संस्थापक मुर्शिदकुली खां था।
मुर्शिदकुली खां ( 1717-1727 ई.)
औरंगजेब ने 1700 ई. में मुर्शिदकुली खां को बंगाल का दीवान बनाया था, किन्तु औरंगजेब की मृत्यु के बाद 1717 ई. में उसने बंगाल में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।
मुर्शिदकुली खां ने अपनी राजधानी ढाका से मुर्शिदाबाद स्थानान्तरित कर दी।
1719 ई. में उसे उड़ीसा का भी प्रान्त प्राप्त हो गया।
उसने बंगाल में भू-सुधार किए। इसके अन्तर्गत इजारेदारी प्रथा प्रारंभ की, किसानों को तकावी ऋण दिए और बिचौलियों का उन्मूलन किया।
शुजाउद्दीन ( 1727-1739 ई.)
यह मुर्शिदकुली खां का दामाद था। 1733 ई. में बिहार पर भी इसका अधिकार हो गया, वहां उसने अलीवर्दी खां को सूबेदार नियुक्त किया।
सरफराज खां ( 1739-1740 ई. )
इसके समय में 1740 ई. में बिहार के सूबेदार अलीवर्दी खां ने गिरिया के युद्ध में सरफराज खां को पराजित कर मार डाला तथा स्वयं बंगाल का नवाब बन गया।
अलीवर्दी खां ( 1740-1756 ई.)
अलीवर्दी खां नाममात्र के लिए मुगल सम्राट के अधीन था।
उसने मुगल बादशाह को राजस्व देना बंद कर दिया।
अलीवर्दी खां को सबसे ज्यादा मराठों ने परेशान किया।
1751 ई. में मराठा सरदार रघुजी ने अलीवर्दी खां को पराजित कर एक संधि हेतु विवश किया।
इस संधि के तहत अलीवर्दी खां ने मराठों को उड़ीसा प्रान्त तथा 12 लाख रुपए वार्षिक चौथ देने की बात स्वीकार कर ली।
अलीवर्दी खां के अंग्रेजों से अच्छे संबंध थे, किन्तु इसने अंग्रेजों को अपने गोदामों को दुर्गीकृत करने की अनुमति नहीं दी। इसने “यूरोपियों की तुलना मधुमक्खियों से की और कहा कि यदि इन्हें न छेड़ा जाए, तो शहद देंगी और यदि छेड़ा जाए तो काट-काट कर मार डालेंगी।”
सिराजुद्दौला ( 1756-1757 ई.)
अलीवर्दी खां का कोई पुत्र नहीं था, बल्कि तीन पुत्रियां थीं। उसने अपनी छोटी पुत्री के पुत्र सिराजुद्दौला को नवाब बनाया।
नवाब बनने के समय उसके 3 प्रमुख शत्रु थे - पूर्णियां का नवाब शौकतजंग, उसकी मौसी घसीटी बेगम तथा अंग्रेज ।
शौकतजंग अलीवर्दी खां की दूसरी पुत्री का पुत्र था, जिसका पिता पूर्णियां का गवर्नर था।
अपने पिता की मृत्यु के बाद वह पूर्णियां का नवाब बना।
घसीटी बेगम अलीवर्दी खां की सबसे बड़ी पुत्री थी तथा ढाका के गवर्नर की विधवा थी।
अलीवर्दी खां ने अपने सबसे छोटी पुत्री के पुत्र सिराजुद्दौला को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था।
अलीवर्दी खां की मृत्यु के उपरान्त जब सिराजुद्दौला बंगाल का नवाब बना, तब शौकतजंग, घसीटी बेगम तथा अंग्रेज उसके विरुद्ध हो गए। किन्तु सिराजुद्दौला ने अक्टूबर, 1756 ई. में मनीहारी के युद्ध में शौकतजंग को पराजित कर मार डाला।
1756 ई. में यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध छिड़ जाने से अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने बंगाल में अपने-अपने गोदामों को दुर्गीकृत करना प्रारंभ कर दिया।
अंग्रेजों ने कलकत्ता और फ्रांसीसियों ने चंद्रनगर की किले बंदी प्रारंभ की।
नवाब के मना करने पर फ्रांसीसी मान गए, किन्तु अंग्रेज नहीं माने।
इससे क्रुद्ध होकर सिराज ने अंग्रेजों के विरुद्ध अभियान किया तथा जून, 1756 ई. को कलकत्ता पर आक्रमण कर फोर्ट विलियम पर अधिकार कर लिया।
नवाब कलकत्ता को माणिकचंद के हाथों सौंप स्वयं मुर्शिदाबाद लौट गया।
ब्लैक होल की घटना ( 20 जून, 1756 ई.)
इस घटना का उल्लेख एक अंग्रेज अधिकारी जे. जेड. हालवेल ने किया है।
इसमें हालवेल ने बताया की नवाब ने 20 जून, 1756 ई. की रात 146 अंग्रेज बंदियों को 18 फुट लंबी तथा 14 फुट चौड़ी कोठरी में बंद कर दिया।
अगले दिन हालवेल सहित मात्र 23 व्यक्ति जिन्दा बचे।
यह घटना इतिहास में ब्लैक होल के नाम से प्रसिद्ध है, किन्तु समकालीन मुस्लिम इतिहासकार गुलाम हुसैन ने अपनी पुस्तक सियारुल मुत्खैरिन में इसका कोई जिक्र नहीं किया है। अतः यह घटना मिथ्या प्रतीत होती है।
प्लासी युद्ध की पृष्ठभूमि
कलकत्ता के पतन का समाचार मद्रास पहुंचते ही क्लाइव और वाटसन के नेतृत्व में एक सेना बंगाल पहुंची।
क्लाइव ने माणिकचंद को घूस देकर जनवरी, 1757 ई. में कलकत्ता पर अधिकार कर लिया।
फरवरी, 1757 ई. में बंगाल के नवाब को क्लाइव से अलीनगर की संधि (कलकत्ता का नया नाम) करना पड़ी, जिसके तहत् अंग्रेजों को अपने स्थलों को दुर्गीकृत करने एवं सिक्के ढालने की अनुमति प्राप्त हो गई।
प्लासी का युद्ध ( 23 जून, 1757 ई.)
अंग्रेजों ने मार्च 1757 ई. को क्लाइव व वाटसन के नेतृत्व में फ्रांसीसियों से चंद्रनगर छीन लिया।
इससे नवाब क्रुद्ध हुआ तथा इसे अलीनगर की संधि का उल्लंघन माना।
अब क्लाइव ने नवाब के विरुद्ध षड्यंत्र करना शरू कर दिया।
इस षडयंत्र में नवाब का प्रधान सेनापति मीर जाफर, एक धनी व्यापारी अमीरचंद्र, बैंकर जगत सेठ तथा दीवान राय दुर्लभ शामिल थे।
इनमें आपस में निश्चय हुआ कि मीर जाफर को नवाब बना दिया जाए और वह इसके लिए कंपनी को लाभान्वित करेगा।
अंततः 23 जून, 1757 ई. को भागीरथी नदी के किनारे प्लासी के मैदान में युद्ध हुआ।
इसमें नवाब की ओर से मीर मदान, मोहनलाल एवं कुछ फ्रांसीसी सैनिकों ने भाग लिया। मीर मदान युद्ध में मारा गया और अंग्रेज विजयी हो गए।
नवाब भागकर मुर्शिदाबाद पहुंचा, जहां मीर जाफर ने उसका कत्ल करवा दिया तथा स्वयं को बंगाल का नवाब घोषित किया।
मीर जाफर अंग्रेजों को उनकी सेवाओं के लिए 24 परगना की जमींदारी और क्लाइव को 2,34,000 पाऊंड की निजी भेंट दी।
यह भी सुनिश्चित हुआ कि भविष्य में अंग्रेज पदाधिकारियों तथा व्यापारियों को निजी व्यापार पर कोई चुंगी नहीं देनी होगी।
प्लासी का युद्ध भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना का प्रस्थान बिन्दु था, किन्तु अंग्रेजों को निर्णायक विजय बक्सर के युद्ध में प्राप्त हुई।
मीर जाफर ( 1757-1760 ई.)
प्लासी के युद्ध के बाद अंग्रेजों ने मीर जाफर को बंगाल का नवाब बनाया।
यद्यपि मीर जाफर क्लाइव की कठपुतली ही था, परन्तु वह कंपनी की लगातार बढ़ती हुई पैसे की मांग को पूरा न कर सका।
1760 ई. तक मीर जाफर पर कंपनी का 25 लाख रुपया बकाया हो गया।
अंग्रेजों ने नवाब बदलने का निश्चय किया और 1760 ई. में मीर कासिम से समझौता किया, जिसमें उसे नवाब बनाने के बदले बर्दमान, मिदनापुर और चटगांव की दीवानी कंपनी को प्राप्त हुई।
मीर जाफर ने मीर कासिम के पक्ष में गद्दी छोड़ दी। इस तरह एक रक्तहीन क्रांति के द्वारा सत्ता परिवर्तन हुआ।
मीर कासिम ( 1760-1763 ई.)
मीर कासिम अलीवर्दी खां के बाद दूसरा सबसे योग्य नवाब था।
वह महत्वाकांक्षी शासक था। उसने अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से मुंगेर स्थापित की।
मीर कासिम ने मुंगेर में तोपों और बंदूकों की फैक्ट्री स्थापित की एवं यूरोपीय पद्धति पर सेना का गठन किया।
धीरे-धीरे अंग्रेजों तथा मीर कासिम के मध्य मतभेद बढ़ने लगे।
अंग्रेजों को लगा कि मीर कासिम भी मीर जाफर की तरह कठपुतली बना रहेगा, किन्तु मीर जाफर अपनी योग्यता से शासन करना चाहता था।
मीर कासिम एवं ब्रिटिश के बीच मतभेद का तात्कालिक कारण दस्तक का दुरूपयोग था। दस्तक का उपयोग कंपनी अधिकारी अपने निजी व्यापार के लिए भी करने लगे थे।
दूसरी तरफ वे दस्तकों को भारतीय व्यापारियों को भी बेच दिया करते थे, जिससे नवाब को राजस्व हानि होने लगी। अतः नवाब ने कठोर कार्यवाही की तथा सभी आंतरिक कर हटा लिए।
अब भारतीय व्यापारी भी अंग्रेजों के समान हो गए, जिससे अंग्रेज नाराज हो गए। इस घटना की परिणति बक्सर के युद्ध में हुई।
बक्सर का युद्ध (22 अक्टूबर, 1764 ई.)
मीर कासिम ने अंग्रेजों के विरुद्ध त्रिगुट बनाया, जिसमें अवध का नवाब शुजाउद्दौला एवं मुगल बादशाह शाहआलम द्वितीय शामिल थे।
अंग्रेजों की कमान हेक्टर मुनरो के हाथ में थी।
22 अक्टूबर, 1764 ई. में हेक्टर मुनरो ने बक्सर के मैदान में मीर कासिम की संयुक्त सेना को पराजित कर दिया।
मीर कासिम दिल्ली भाग गया, जहां 1777 ई. में उसकी मृत्यु हो गई, जबकि शुजाउद्दौला व मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय ने अंग्रजों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।
प्लासी का युद्ध तो षड्यंत्र का परिणाम था, लेकिन बक्सर का युद्ध अंग्रेजों की विजय थी।
बक्सर युद्ध में विजय के पश्चात् ही भारत में वास्तविक रूप से ब्रिटिश प्रभुसत्ता स्थापित हुई।
इलाहाबाद की संधि ( 1765 ई.)
इलाहाबाद की प्रथम संधि (12 अगस्त, 1765 ई.) मुगल सम्राट शाहआलम द्वितीय तथा क्लाइव के मध्य हुई।
इसके तहत् मुगल सम्राट ने अंग्रेजों को बंगाल, बिहार एवं उड़ीसा की दीवानी दे दी। बदले में कड़ा एवं इलाहाबाद का क्षेत्र अवध के नवाब से लेकर मुगल बादशाह को दे दिया गया। साथ ही अंग्रेजों ने शाहआलम द्वितीय को निजामत के खर्च हेतु 53 लाख रुपए सालाना एवं व्यक्तिगत खर्च के लिए 26 लाख रुपए सालाना देना स्वीकार किया। अब व्यवहार में मुगल शासक अंग्रेजों का पेंशन प्राप्त करने वाला बनकर रह गया।
इलाहाबाद की दूसरी संधि (16 अगस्त, 1765 ई.) अवध के नवाब शुजाउद्दौला तथा क्लाइव के मध्य हुई।
इसके तहत् कड़ा और इलाहाबाद का क्षेत्र छोडकर अवध का राज्य नवाब को वापस मिल गया। बदले में अंग्रेजों को हर्जाने के रूप में 50 लाख रुपए मिले। इसमें यह भी प्रावधान रखा गया कि अगर कोई शक्ति अवध पर हमला करती है, तो ब्रिटिश अवध की सहायता करेंगे।
बंगाल में द्वैध शासन ( 1765-1772 ई.)
बक्सर के युद्ध में विजयी होने के बाद अंग्रेजों ने मीर जाफर को पुनः बंगाल का नवाब बनाया, किन्तु शीघ्र ही उसकी मृत्यु के बाद उसका बेटा नजमुद्दौला नवाब बना।
नए नवाब से फरवरी, 1765 ई. में हुई संधि के द्वारा नवाब की सेना समाप्त कर बंगाल की सुरक्षा की जिम्मेदारी कलकत्ता कौंसिल ने अपने हाथों में ले ली।
इस सन्धि के अनुसार बंगाल में एक नायब सूबेदार मो. रजा खां की नियुक्ति अंग्रेजों द्वारा की गई।
साथ ही बंगाल की सुरक्षा, बाह्य सम्बन्ध तथा वित्तीय व्यवस्था पर भी कम्पनी का नियंत्रण हो गया। इस तरह बंगाल में नवाब का स्वतंत्र शासन समाप्त हो गया।
नवाब को 53 लाख रुपए वार्षिक दिए जाने का प्रावधान कर दिया गया।
क्लाइव ने अगस्त, 1765 ई. में बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त की।
इन प्रावधानों में शाहआलम को 26 लाख रुपए प्राप्त होने थे, अर्थात् - इन दोनों राशियों (26 लाख + 53 लाख) को देने के बाद समस्त भू-राजस्व पर कम्पनी का अधिकार हो गया।
क्लाइव ने द्वैध शासन व्यवस्था के अन्तर्गत राजस्व प्रशासन, राजस्व वसूली तथा दीवानी न्याय अपने पास रखे, जबकि आन्तरिक शान्ति व्यवस्था, फौजदारी न्याय एवं अन्य समस्त प्रशासनिक दायित्व नवाब पर छोड़ दिए, अर्थात् क्लाइव ने प्रशासन का अधिकार तो ले लिया, लेकिन उत्तरदायित्व स्वीकार नहीं किया।
यह एक ऐसी व्यवस्था थी, जिसमें अधिकार एवं उत्तरदायित्व दोनों को अलग कर दिया गया, इसी को द्वैध शासन कहते हैं।
कंपनी ने दीवानी कार्य के लिए बंगाल में मोहम्मद रजा खां, बिहार में राजा सिताब राय तथा उड़ीसा में राय दुर्लभ को नियुक्त किया।
द्वैध शासन व्यवस्था के तहत् बंगाल का शोषण होता रहा।
बंगाल की स्थिति इतनी कमजोर हो गई कि इतिहासकार के. एम. पन्निकर ने इस काल (1765-1772 ई.) को डाकुओं का राज्य कहा है।
उसी प्रकार ब्रिटिश इतिहासकार पर पर्सीवल स्पीयर ने इसे बेशर्मी और लूट का काल माना है।
अन्तः वॉरेन हेस्टिंग्स ने 1772 ई. में द्वैध शासन व्यवस्था को समाप्त कर दिया।