वैदिक संस्कृति
सिन्धु संस्कृति के पतन के पश्चात भारत में जिस नवीन सभ्यता का विकास हुआ उसे वैदिक अथवा आर्य सभ्यता के नाम से जाना जाता है। वैदिक साहित्य से जिस संस्कृति की जानकारी प्राप्त होती है उसे वैदिक संस्कृति कहते है ।
वैदिक साहित्य के आधारभूत ग्रन्थ वेद है। वेद का अर्थ है- ज्ञान
यह ज्ञान वैदिक ऋषियों को आत्म-साक्षात्कार के द्वारा प्राप्त हुआ , इसीलिए वेदो को औपौरुषेय भी कहा जाता है। वैदिक ऋषियों को लिखना नहीं आता था। लिपि का ज्ञान नही था। इस ज्ञान को एक पीढ़ी से दूसरी पीढी तक सुनकर पहुंचाया गया इसीलिए वैदिक साहित्य को श्रुति साहित्य भी कहा जाता है।
Nov-2007 मे यूनेस्को ने वैदिक मंत्रोच्चारण की परम्परा को - मानवता की अमूर्त सांस्कृति विरासत का दर्जा दिया।
वैदिक संस्कृति का स्वरूप ग्रामीण था। इसकी शुरुआत सप्तसैन्धव प्रदेश में हुयी। बाद मे यह सम्पूर्ण उत्तर भारत मे आयी। ऋषि अगस्तय ने वैदिक संस्कृति को प्रायद्वीपीय भारत मे फैलाया।
आर्यों का मूल निवास स्थान
आर्यों के मूल निवास स्थान को लेकर विद्वानों में मतभेद है। भगवान दास ने अपनी पुस्तक 'Return of the Aryans में भारत को ही गर्यो का मूल निवास स्थान माना है।
सप्त-सैन्धव प्रदेश - इस मत के प्रवर्तक डा० अविनाश चन्द्र दास एवं डा० सम्पूर्णानन्द हैं। इनके अनुसार आर्य सप्त-सैन्धव प्रदेश के निवासी थे। ऋग्वेद में सप्त-सैन्धव को 'देवकृत योनि' कहा गया है।
ब्रह्मर्षि प्रदेश - पं० गंगानाथ झा
देविका प्रदेश - डी० एस० त्रिवेदी
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी पुस्तक 'सत्यार्थ प्रकाश में तिब्बत को आर्यों का मूल निवास स्थान माना है। -
बाल गंगाधर तिलक ने अपनी पुस्तक 'दि आर्कटिक होम आफ दि आर्यनस' में आर्यों का मूल निवास स्थान उत्तरी ध्रुव को माना है।
हंगरी अथवा डेन्यूब नदी - पी० गाइल्स हैं।
जर्मनी प्रदेश इस मत के प्रवर्तक हर्ट एवं पेन्का हैं। इन्होंने शारीरिक बनावट के आधार पर यह निष्कर्ष दिया है।
गार्डन चाइल्ड दक्षिणी रूस को आर्यों का मूल निवास स्थान मानते हैं।
वैदिक काल का समय निर्धारण
ऋग्वैदिक काल : 1500 ई.पू. से 1000 ई.पू. तक उत्तर वैदिक काल : 1000 ई. पू. 600 ई. पू. तक
ऋग्वैदिक काल
वैदिक सभ्यता मूलतः ग्रामीण थी।
ऋग्वैदिक समाज का आधार परिवार था। ऋग्वैदिक काल में परिवार पितृसत्तात्मक होता था। ऋग्वैदिक काल का मूल व्यवसाय पशुपालन था एवं कृषि अन्य व्यवसाय था।
वैदिक काल अध्ययन के स्रोत
1. पुरातात्विक स्रोत
चित्रित धूसर मृद्भांड
बोगाजकोई अभिलेख : इसमें वैदिक देवता इंद्र, मित्र, वरुण एवं नासत्य का उल्लेख है , किन्तु अग्नि का नहीं।
2. साहित्यिक स्रोत : वैदिक साहित्य
वैदिक साहित्य
वैदिक साहित्य के अन्तर्गत वेद , ब्राह्मण ,आरण्यक और उपनिषद आते है। बाह्मण ग्रन्थ वेदो पर की गयी गद्यात्मक टिप्पणियाँ है। आरण्यक ग्रन्थ→ वेदो के दार्शनिक और कर्मकाण्डीय चिन्तन को जंगल मे संकलित किया गया है । उपनिषद वेदो के दार्शनिक पक्ष का संकलन उपनिषदो मे किया। ये वैदिक साहित्य के अन्त मे संकलित किये गये इसीलिए इन्हें उपनिषदो को वेदान्त भी कहा जाता है। उपनिषद दर्शन पर आधारित है।
उपनिषद् भारतीय दर्शन के आधारभूत ग्रन्थ है। →उपनिषदो का मुख्य विषय आत्मा और ब्रह्म के सम्बंधों की व्यख्या करना है। आत्मा और ब्रह्म के सम्बन्ध को बताने वाले वाक्य महावाक्य कहलाते है।
प्रज्ञानं ब्रह्म (प्रजा ही ब्रह्म है) - ऐतरेय उपनिषद
अयमात्मा ब्रह्म (यह आत्मा ही ब्रह्म है) - माण्डूक्योपनिषद
तत्वमसि (तू वही है ) - छान्दोग्योपनिषद
अहं ब्रह्मयास्मि (मै ही ब्रह्म हूँ ) - बृहदारण्यकोपनिषद
उपनिषदो के अनुसार, - आत्मा और ब्रह्म के मध्य अभेद सम्बन्ध है।
मुक्तोपनिषद के अनुसार उपनिषदो की संख्या 108 है। सबसे छोटा- ईशावास्योपनिषद (यजुर्वेद) सबसे बड़ा - बृहदारण्यकोपनिषद (यजुर्वेद) सबसे प्राचीन- 'छान्दोग्योपनिषद (सामवेद)
कठ और श्वेताश्वतर उपनिषदो को छोड़कर सभी गद्य मे लिखे है।
वैदिक साहित्य को महार्षि कृष्ण द्वैपायन (वेदव्यास)ने संकलित किया है।
वेद | शाखांए | ब्राह्मण | आरण्यक | उपनिषद | पुरोहित |
ऋग्वेद | शाकल, वास्कल | ऐतरेय ब्रा कौशीतकी ब्रा | ऐतरेय आ कौशीतकी आ | ऐतरेय,कौशीतकी | होतृ |
सामवेद | कौधुम,राणायनियम, जैमिनी | तांड्या ब्रा जैमिनी ब्रा | छान्दोग्य आ जैमिनी आ | छान्दोग्योपनिषद् केन उपनिषद जैमिनीउपनिषद | उद्गातृ |
यजुर्वेद | शुक्ल, कृष्ण | शतपथ ब्रा तैत्तिरीय ब्रा | वृहदारण्यक शतपथ आ तैत्तिरीय आ | वृहदारण्यक तैत्तिरीय उप कठ उप श्वेताश्वतर उप ईशावास्योपनिषद् मुक्तोंपनिषद जाबालोपनिषद
| अर्ध्वयु |
अथर्ववेद | शौनक, पिप्लाद | गोपथ | कोई नही | मुण्डकोपनिषद माण्डुक्योपनिषद प्रश्नोंपनिषद | ब्रह्म |
वेद
वेदों की संख्या 4 है – 1. ऋग्वेद 2. यजुर्वेद 3. सामवेद 4. अथर्ववेद (ऋग्वेद, सामवेद एवं यजुर्वेद को वेदत्रयी कहा जाता है।)
ऋग्वेद : इसमें विभिन्न देवताओं की स्तुति में गाये जाने वाले मंत्रों का संग्रह है।इसका संकलन महर्षि कृष्ण द्वैपायन (वेदव्यास) ने किया है। इसमें कुल 10 मंडल, 1028 सूक्त एव 10,462 मंत्र हैं।इसका दूसरा एवं सातवाँ मंडल सबसे पुराना है ये मंडल वंश मंडल कहलाते हैं।इसका 10 वां मंडल सबसे नवीन है।
➜ ऋग्वेद की शुरुआत अग्नि के मंत्रों से होती है
➜ ऋग्वेद में लोहे का उल्लेख नहीं मिलता।
➜ ऋग्वेद में चाँदी का उल्लेख नहीं है।
➜ ऋग्वेद की सबसे पवित्र नदी सरस्वती है इसे नदीतमा, देवितमा , मातेतमा कहा जाता है।
➜ ऋग्वेद में अफगानिस्तान की चार नदियों कुभा (काबुल), क्रमु (कुर्रम), गोमती (गोमल) एवं सुवास्तु (स्वात) का उल्लेख मिलता है।
➜ ऋग्वेद में यमुना का उल्लेख तीन बार एवं गंगा का उल्लेख एक बार मिलता है।
➜ ऋग्वेद में कश्मीर की नदी मरूद्वृधा का उल्लेख मिलता है।
➜ ऋग्वेद के नदी सूक्त में व्यास (विपाशा) नदी को “परिगणित नदी” कहा गया है।
➜ ऋग्वेद का 9 वां मंडल सोम को समर्पित है।
➜ ऋग्वेद का पाठ करने वाला पुरोहित “ होतृ (होता)” कहलाता है।
➜ ऋग्वेद एवं ईरानी ग्रन्थ जेंद अवेस्ता में समानता पायी जाती है।
➜ अस्तो मा सद्गमय ऋग्वेद से लिया गया है।
➜ ऋग्वेद में जायेदस्तम् अर्थात् पत्नी ही गृह है
➜ ऋग्वेद का 10 वें मंडल ऐतिहासिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है इसके पुरुष सूक्त में 4 वर्ण व्यवस्था का पहली बार उल्लेख हुआ है।
➜ नासदीय सूत्र में ब्रह्मांड की उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है।
➜ ऋग्वेद के सातवें मण्डल में दशराज्ञ युद्ध का उल्लेख है।
ऐतरेय ब्राह्मण : इसके लेखक महिदास अपनी माता इतरा के नाम पर संकलित किया था ।
➜ इसमें राजा के देवी उत्पत्ति का सिद्धांत ।
➜ विशाल जल राशि के रूप में समुद्र का उल्लेख ।
➜ पितृसत्तात्मक समाज को मान्यता ।
➜ इसमें पुत्रियों को सभी दुखों का कारण बताया गया है, पुत्री को कृपण कहा गया है । शुन शेप आख्यान ।
सामवेद :शाम का अर्थ गायन सामवेद में ऐसे मंत्रों का संकलन है जिनके द्वारा देवताओं की स्तुति गाकर की जाती हैं । सामवेद में 1549 मंत्र जिनमें से 75 ही मौलिक हैं , शेष मंत्र ऋग्वेद के लिए गए हैं ।
सामवेद को ऋग्वेद से अभिन्न माना जाता है ।
➜ सामवेद से सर्वप्रथम 7 स्वरों (सा, रे, गा, मा....) की जानकारी प्राप्त होती है। यह भारतीय संगीतशास्त्र पर प्राचीनतम ग्रन्थ है।
➜ इसका पाठ करने वाला पुरोहित उद्गातृ कहलाता है।
➜ सामवेद का उपवेद गन्धर्ववेद कहलाता है।
➜ सामवेद के मूलतः दो ब्राह्मण हैं - ताण्ड्य और जैमिनीय ।
ताण्ड्य ब्राह्मण को महाब्राह्मण भी कहते हैं, यह 25 अध्यायों में विभक्त हैं, इसीलिए इसे पंचविश कहा जाता है। ताण्ड्य ब्राह्मण में प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़ सूखा भूकंप अग्निकांड सुनामी इत्यादि को नियंत्रित करने वाले मंत्रों का उल्लेख है, इसलिए इसे इसे अदभुत ब्राह्मण कहते हैं।
छांदोग्य उपनिषद यह सबसे प्राचीन उपनिषद है । इसमें पहली बार देवकी पुत्र कृष्ण का उल्लेख हुआ है । श्वेतकेतु एवं उद्धारक अरुण संवाद का उल्लेख।
यजुर्वेद : कर्मकांड प्रधान यजुर्वेद यजुर्वेद गद्य और पद्य दोनों में लिखा गया है । इसमें 40 अध्याय और 1990 मंत्र हैं । इसमें यज्ञ की विधियों/कर्मकांडों पर बल दिया गया है। इसका पाठ करने वाला अर्ध्वयु कहलाता है।
➜ यजुर्वेद में सर्वप्रथम राजसूय तथा वाजपेय यज्ञ का उल्लेख मिलता है।
शतपथ ब्राह्मण यह सबसे प्राचीन और सबसे बड़ा ब्राह्मण ग्रंथ हैं इसके लेखक महर्षि याज्ञवल्क्य हैं। इसमें पहली बार महाप्रलय की अवधारणा , पुरुरवा उर्वशी की कथा , राम कथा(राजा जनक ) , पुनर्जन्म का सिद्धांत ,आश्विन कुमार द्वारा च्यवन ऋषि को यौवन दान , पत्नी को अर्धांगिनी , आर्य विदेश माधव और पुरुष मेधा का उल्लेख हुआ है।
वृहदारण्यक उपनिषद : यह सबसे बड़ा उपनिषद है इसमें गार्गी याज्ञवल्क्य संवाद का उल्लेख है ।
तैत्तिरीय उपनिषद : अतिथि देवो भव का उल्लेख मिलता है अधिक से अधिक अन्न उपजाओ का भी उल्लेख मिलता है ।
कठोपनिषद : यम नचिकेता संवाद का उल्लेख यहीं पर है इस उपनिषद् में आत्मा को पुरुष कहा गया है। भारतीय दर्शन का सबसे प्राचीन संप्रदाय सांख्य दर्शन का प्राचीन उल्लेख यहीं पर मिलता है इसमें 24 जोड़ी बैल का उल्लेख हैं ।
ईशावास्योपनिषद : निष्काम कर्म का उल्लेख है ।
जबालो उपनिषद इसमें पहली बार चारो आश्रम का उल्लेख मिलता है ।
अथर्ववेद : अथर्वा ऋषि के नाम पर अथर्ववेद पड़ा । इसमें 20 अध्याय, 731 , सूक्त 6000 मंत्र हैं । यह लौकिक वेद हैं । इसमें जादू टोना भूत प्रेत वशीकरण के मंत्रों के साथ साथ विभिन्न औषधीय पौधों का उल्लेख है ।
➜ अथर्व वेद में सभा और समिति को प्रजापति की दो पुत्रियां बताया गया है ।
➜ अथर्ववेद के मंत्रों का उच्चारण करने वाला पुरोहित ब्रह्म कहलाता है।
➜ इसकी दो शाखाएं हैं- शौनक एवं पिप्लाद
➜ अथर्ववेद के उपनिषद मुण्डक, मांडूक्य एवं प्रश्न हैं।
➜ अथर्ववेद का कोई अरण्यक नहीं है।
मुंडक उपनिषद भारत सरकार के राजकीय चिन्ह का अनिवार्य अंग सत्यमेव जयते इसी से लिया गया है । इस उपनिषद में यज्ञ को टूटी-फूटी नौका बताया गया है तथा यज्ञ को जीवन रूपी भवसागर से पार करने में अक्षम बताया गया है । उपनिषद वैदिक कर्मकांड की प्रतिक्रिया स्वरूप लिखे गए हैं । उन्होंने ज्ञान मार्ग को महत्व दिया । अथर्ववेद में मगध तथा अंग क्षेत्र में रोग फैलने की कामना की गई है । अथर्ववेद में कुरु का राजा परीक्षित का उल्लेख है , जिन्हें मृत्युलोक का देवता कहा गए हैं ।
उत्तर वैदिक काल
शिक्षा : शब्दों के शुद्ध उच्चारण के लिये इसकी रचना की गयी। प्रर्वतक - बामज्य ऋषि, तुलना - नाक से की गयी है। उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थ- गाएलम्
कल्प→ सूक्त शैली में वैदिक कर्मकाण्डी अथवा विधि-विधान को कल्प के रूप मे संकलित किया गया। इसके तीन प्रकार है (i) श्रोत सूत्र इसमे यज्ञ सम्बधी, विधि नियमों का संकलन है। इसी के शुल्व सूत्र मे यज्ञ-वेदिकाओं के निर्माण की विधियों का वर्णन है। ज्यामिति (रेखागणित) का प्रारम्भिक स्त्रोत शुल्व सूत्र को माना जाता है।
ग्रह्य सूत्र : इसमें व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन से संबंधित विधि-नियमो का वर्णन है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति से पंचमहायज्ञ करने की अपेक्षा की है ।
(i) ब्रह्म यज्ञ या ऋषि यज्ञ इसमें वेदों का अध्ययन किया जाता था। इस यज्ञ के माध्यम से व्यक्ति प्राचीन विद्वान ऋषियों के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करता था।
(ii) देव यज्ञ इस यज्ञ में देवताओं का पूजन आदि करके उन्हें प्रसन्न किया जाता था।
(iii) पितृ यज्ञ - यह मृत पितरों की शान्ति हेतु किया जाता था। इसमें पितरों को तर्पण, श्राद्ध आदि किया जाता था।
(iv) भूत यज्ञ इस यज्ञ के माध्यम से भूत-प्रेतों आदि को शान्त किया जाता था।
(v) मनुष्य यज्ञ इसका उद्देश्य अतिथियों की सेवा करना था। त्रिवर्ग गृहस्थ आश्रम से त्रिवर्ग अर्थात धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति का ज्ञान होता था।
धर्म सूत्र : इसमे राजनीति, अर्थनीति, नैतिकता सम्धी नीतियों का संकलन है। कल्प सूत्र की तुलना - हाथ से की जाती है।
निरुक्त : शब्दों की उत्पत्ति उनका अर्थ तथा इतिहास बताने के लिये इनकी रचना की गयी। प्रर्वतक - निघण्टु (कश्यप ऋषि), तुलना- कान से उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थ- यास्करचित - निरूक्तशास्त्र
व्याकरण वेदाग →भाषा का विश्लेषण तथा उसे व्यक्त करने के लिये इसकी रचना की। पाणिनी द्वारा रचित अष्ठधायी प्राचीनतम व्याकरण है। पाणिनी, पतजलि, कात्यायन को मुनित्रय की संज्ञा दी जाती है। तुलना-मुख से
छन्द - वैदिक मन्त्री को चरणब्ध् ढंग से लिखने के लिये इस वेदांग की रचना की गयी इस चतुष्पदी वृत्त भी कहा जाता है। गायत्री, जगति, त्रिष्टुप,
वेदों में सर्वाधिक जगति छन्द का प्रयोग हुआ है। जबकि सर्वाधिक लोकप्रिय गायत्री छन्द है। तुलना-पैर से।
ज्योतिष : वैदिक ऋषियो का ब्रह्माण्ड के प्रति सहज जिज्ञासा शुभ तिथियों का निर्धारण आदि के लिये किया गया चिन्तन इसमे संकलित है। लगथ मुनि द्वारा वेदांग ज्योतिष प्राचीनतम उपलब्ध ग्रन्थ है। ज्योतिष की तुलना - नेत्र से की गयी है।
स्मृति ग्रंथ स्मृतियाँ हिन्दू धर्म के कानूनी ग्रंथ है। ये पद्द में लिखी गयी है। परन्तु विष्णु स्मृति गद्द में लिखी गयी है। इनका संकलन विभिन्न कालों में हुआ। प्रमुख स्मृतियाँ निम्नलिखित हैं ।
मनुस्मृति यह सबसे प्राचीन स्मृति ग्रन्थ है । मनु को हिन्दू परम्परा में आदि पुरुष माना जाता है । मनु ने जन्मना जातिवाद और लैंगिक भेदभाव को मान्यता दी । मनुस्मृति में स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं दिया गया । मनुस्मृति में शुद्र अध्यापक और अध्यापिका का उल्लेख है ।
मनुस्मृति में अध्यापकों के दो प्रकार बताये गये हैं ।
1. उपाध्याय जो जीविका के लिये अध्यापक का कार्य करते थे।
2. आचार्य जो निःशुल्क अध्यापन कार्य करते थे।
मनुस्मृति के भाष्यकार - भारूचि, मैघातिथि, कुल्लू भट्ट, गोविन्द राज और नन्दना ।
याज्ञवल्क्य स्मृति यह अधिक सुव्यवस्थित एवं संक्षिप्त है। इसी स्मृति ने स्त्रियों को सर्वप्रथम सम्पत्ति का अधिकार प्रदान किया।
याज्ञवल्क्य स्मृति के भाष्यकार - विज्ञानेश्वर (मिताक्षर ), अपरार्क (अपरार्क निबन्ध ), विश्वरूप (बालक्रीडा ) अपरार्क कोकण के शिलाहार वंशी शासक थे। विज्ञानेश्वर कल्पाणी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य पष्ठ के दरबारी थे इन्होने अपने ग्रन्थ मिताक्षरा में पैत्रिक सम्पति के आनुवाशिंक अधिकार को मान्यता दी है, अर्थात पिता के जीवन काल में भी पुत्रों को सम्पत्ति का भाग मिले सकता है ।
दायभाग (12वीं शदी, बंग प्रदेश )- जीमूत वाहन ने धर्म रत्न नामक ग्रन्थ की रचना की । इसके दायभाग में उत्तराधिकार के नियम है जिसके अनुसार पिता के जीवन काल में उसके पुत्र को सम्पत्ति का भाग नहीं मिल सकता, केवल पिता की मृत्यु के बाद ही मिल सकता है । यह बंगाल, असम तथा कुछ पूर्वी राज्यों में यह आज भी प्रचलित है।
नारद स्मृति गुप्त कालीन यह एक प्रमुख स्मृति है इसमें स्त्रियों के पुनर्विवाह की अनुमति दी गई है और दासों की मुक्ति का प्रावधान किया गया है । इसमें दीवानी और फौजदारी कानूनों को अलग किया गया।
देवल स्मृति यह पूर्व मध्यकालीन स्मृति है। इसमें मुस्लिम धर्म अपनाने वाले लोगो को पुनः हिन्दू धर्म में शामिल करने का प्रावधान किया गया है ।
विष्णु स्मृति यह स्मृति गद्द में लिखी गई है।
पुराण
पुराणों का संबंध प्राचीन भारतीय आख्यान से हैं । इसके संकलनकर्ता लोमहर्ष और उनके पुत्र उग्रश्रवा माने जाते हैं। पुराणों की संख्या 18 है। इनमें मत्स्य पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण, भागवत् पुराण, मार्कण्डेय पुराण आदि प्रमुख हैं।
मत्स्य पुराण यह सबसे प्राचीन है, इससे सातवाहन वंश की सूचना प्राप्त होती है ।विष्णु के 10 अवतारों का पहला विवरण प्राप्त होता है ।
विष्णु पुराण इससे मौर्य वंश की सूचना मिलती है ।
वायु पुराण इसमें गुप्त वंश की सूचना मिलती है
अग्नि पुराण इसमें गणेश को अनिष्टकारी देवता बताया गया है ।
पुराण भविष्य कथन शैली में लिखे गए हैं। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने पुराणों को पाखंड का पिटारा कहा है । पुराणों के ऐतिहासिक महत्व को सर्वप्रथम पार्जिटर अपनी पुस्तक Ancient Indian Historical Tradition में व्यक्त किया है । अमर सिंह ने अपने अमरकोश में पुराणों के पांच विषय बताएं हैं । सर्ग , प्रतिसर्ग ,वंश ,मन्वन्तर ,वंशानुचरित
रामायण इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि हैं। रामायण का तमिल भाषा में पहली बार अनुवाद चोल शासक कुलोत्तुंग तृतीय के समय के कवि कम्बन ने किया। इसे रामायणम् या रामावतारम् नाम से जाना जाता है। रामायण का मे बंगलाभाषा में अनुवाद सर्वप्रथम कृत्तिवास ने बारवक् शाह के समय किया। 20वीं शताब्दी में ई०वी० रामस्वामी नायकर उर्फ पेरियार ने तमिल भाषा में सच्ची रामायण की रचना की।
महाभारत इसका संकलन महर्षि वेदव्यास ने किया। प्रारम्भ में इसमें केवल 8800 श्लोक थे, तब इसे जयसंहिता कहा गया, जिसका अर्थ है। बाद में श्लोकों की संख्या बढ़कर 24000 हो गई, तब इसे भारत कहा गया । अन्ततः इसमें एक लाख श्लोक हो गए और तदनुसार यह शतसाहस्री संहिता या महाभारत कहलाने लगा। यह विश्व का सबसे बड़ा महाकाव्य है।
महाभारत में कुल अठारह पूर्व है। इसमें भीष्म पर्व (6 वें पर्व) का भाग गीता है, जिसमें में कर्म, भक्ति एवं ज्ञान का संगम मिलता है। इसमें कर्म को सर्वाधिक प्रधानता दी गई है। गीता में ही सर्वप्रथम अवतारवाद का उल्लेख मिलता है।
महाभारत का तमिल में सर्वप्रथम अनुवाद पेसन्देवनार ने किया, जो भारतम् नाम से जाना जाता है। महाभारत का बंगला भाषा में अनुवाद अलाउद्दीन नुशरत शाह के समय में हुआ।
ऋग्वैदिक राजनैतिक स्थिति
कबीलाई संरचना पर आधारित ग्रामीण संस्कृति थी। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई कुल अथवा परिवार थी।जन प्रशासन की सर्वोच्च इकाई थी। राजा को जनस्य, गोपा, विशपति, पुरभेत्ता, गोपति कहा जाता था। राजा नियमित सेना नहीं रखता था।लेकिन युद्ध के समय एक नागरिक सेना, जिसे मिलिशिया कहा जाता था, का गठन कर लिया जाता था। स्त्रियाँ सभा, समिति एवं विदथ में भाग लेती थी। विदथ ऋग्वेद की सबसे प्राचीन संस्था थी।समिति के प्रमुख को ईशान कहते थे।ऋग्वैदिक जन विश में, विश ग्राम में और ग्राम कुल या गृह में विभाजित थे (जन-विश-ग्राम-कुल या गृह)। विश का प्रमुख विशपति, ग्राम का ग्रामणी, कुल का कुलप एवं गृह का गृहपति होता था।ऋग्वेद में बलि शब्द का उल्लेख मिलता है, जो प्रजा द्वारा राजा को स्वेच्छा से दिया जाने वाला उपहार था।इस समय किसी प्रकार की कर व्यवस्था प्रचलित नहीं थी।
राजा के पदाधिकारी
राजा के प्रमुख पदाधिकारियों में पुरोहित, सेनानी, ग्रामणी, सूत्र (रथ हाँकने वाला), रथकार और कर्मकार (धातुकर्मों) थे। अन्य पदाधिकारियों में पुरुष (दुर्गपति), स्पर्श (गुप्तचर) और दूत का उल्लेख मिलता है। इन पदाधिकारियां में पुरोहित सर्वश्रेष्ठ थे।
न्याय प्रशासन
राजा पुरोहित की सहायता से न्याय करता था। ऋग्वेद के मंत्रों में सौ गायों के रूप में दिए गए दण्ड का उल्लेख मिलता है। ऋग्वेद में अपराध करते हुए अपराधियों (जीवगृम) को तत्काल पकड़ने वाले उग्र (पुलिस) का जिक्र है।
ऋग्वैदिक कालीन प्रमुख जन
भरत यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण जन था जो सरस्वती और यमुना नदी के बीच बसा हुआ था। इसी वंश का राजा सुदास था ।
त्रित्सु यह रावी के पूर्व में बसा था।
कुरु- ये लोग सरस्वती के दोनों ओर निवास करते थे। यह जन भरत एवं त्रित्सु वंश के साथ निकट सम्बन्ध बनाये हुये था।
यदु और तुर्वुस – ये दोनों जन पंजाब में रहते थे, इन दोनों में निकट सम्बन्ध था, क्योंकि ऋग्वेद में इन दोनों का नाम एक साथ आता है।
गान्धारी यह भारत के सीमान्त क्षेत्र उत्तर-पश्चिम में रहती थी।
मत्स्य और चेदि ये पंजाब के दक्षिण की ओर राजस्थान और मालवा क्षेत्र में निवास करती थी।
शृंजय- इसे ईरानी मूल का माना जाता है पंजाब पर चढ़ाई करते हुये इसके सेनापति देवव्रत द्वारा तुर्दशो एवं वृषिवन्तों को हराते हुये दर्शाया गया है।
पख्त इसका सामंजस्य हेरोडोटस में उल्लिखित 'पेक्टाइस' से जोड़ा जाता है।
वैकर्ण कश्मीर में स्थित
क्रिवि सिन्धु एवं अस्किनी के किनारों पर बसी थी
शिबि झेलम और दिनाव के पास स्थित।
अलिन और भलानस ये सिंधु नदी के पश्चिम में काबुल तक बसे थे।
ऋग्वैदिक कालीन संस्थाये
विदध यह आर्यों की प्राचीनतम संस्था थी। इसका उल्लेख कर दे 122 बार किया गया है। यह सामाजिक, धार्मिक एवं सैन्य उद्देश्यों के लिये कार्य करती थी। इसकी चर्चाओं में पुरुषों के साथ महिलायें भी सक्रिय रूप से भाग लेती थी । विदध में ही उपज का वितरण होता था । उत्तरवैदिक काल में इसे समाप्त कर दिया गया था।
सभा : ऋग्वेद में इसका उल्लेख 8 बार मिलता है । यह अभिजात लोगों की संस्था थी तथा कुछ न्यायिक अधिकार प्राप्त थे। इसमें महिलायें हिस्सा लेती थी। उत्तर वैदिक काल में इसमें महिलाओं की भागीदारी बन्द कर दी गई। सभा का प्रधान सभापति कहलाता था । इसकी तुलना आधुनिक राज्य सभा से की जा सकती है। 3.
समिति - यह जनसाधारण की संस्था थी। ऋग्वेद में इसका 9 बार उल्लेख मिलता है। समिति राजा की नियुक्ति, पदच्युत करने का अधिकार एवं नियंत्रण रखती थी। समिति के सभापति को ईशान कहा जाता था। अथर्ववेद में सभा एवं समिति को प्रजापति की पुत्रियाँ कहा गया है। इसकी तुलना आधुनिक लोक सभा से की जाती है।
गण : ऋग्वेद के समय यह एक जन सभा थी जिसमें कुलीन लोग शामिल थे इसके मुखिया को गणपति कहा जाता था।
ऋग्वैदिक समाज
ऋग्वैदिक काल का समाज कबायली या जनजातीय संरचना पर आधारित था ।
समाज में 2 वर्ग थे (1) आर्य (2 ) अनार्य
अनार्यों को अदेवयु (देवताओं को न मानने वाला), अयज्जवन (यज्ञ न करने वाले), अनासः (बिना नाक वाले) मृधवाक् (आर्य भाषा न बोलने वाले), देवपीयु (देवताओं का निन्दक), कहा जाता था।
ऋग्वैदिक काल के अंतिम चरण में वर्ण व्यवस्था का विकाश हुआ । इसमें सामाजिक गतिशीलता मौजूद थी । वर्ण का निर्धारण पेशे के आधार पर किया जाता था। ऋग्वेद के नौवें मण्डल में एक व्यक्ति कहता है कि -"मैं कवि हूँ, मेरा पिता वैद्य है, मेरी माँ आटा पीसने वाली है। इस तरह अलग-अलग कार्य करते हुए भी हम लोग साथ-साथ रहते हैं। ऋग्वेद के 10 वें मंडल में वर्णित पुरुष सूक्त में चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन मिलता है।
उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था में जटिलता आने लगी अंततः यह जन्म पर आधारित हो गयी ।
शुद्रो को छोडकर तीन वर्ण ब्राह्मण ,क्षत्रिय , वैश्य द्विज कहलाये ।
वैदिक काल में अस्पृश्यता का प्रचलन नही था ।
इस काल में दास प्रथा प्रचलित थी परन्तु दासों को घरेलू कार्यों में लगाया जाता था ना कि कृषि कार्यों में।
वैदिक काल में महिलायों की स्थिति
वैदिक काल में महिलायों की स्थिति में निरन्तरता और परिवर्तन के तत्व दिखाई पड़ते है ।
उत्तर वैदिक काल में महिलायों की दशा में गिरावट आई । ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्रियों को सभी दुखो का कारण तथा पुत्रो को रक्षक कहा गया है । शतपथ ब्राह्मण में पत्नी को अर्धांगिनी कहा गया है। मैत्रायणी संहिता में स्त्रियों की तुलना शराब और जुए से की गई हैं ।
उत्तर वैदिक काल में नये सामाजिक संस्थाओ का विकास हुआ। गोत्र परम्परा, आश्रम व्यवस्था, पुरुषार्थ की अवधारणा, संस्कार
गोत्र प्रथा उत्तर वैदिक काल में गोत्र प्रथा स्थापित हुई। व्यक्ति अथवा समुदाय के द्वारा स्वंम को एक ऋषि परम्परा से जोड़ कर देखना ही गोत्र है । प्रारम्भ में सगोत्रीय विवाह मान्य था , लेकिन बाद में एक ही गोत्र या मूल पुरुष वाले लोगों के बीच आपस में विवाह निषिद्ध हो गया।
आश्रम व्यवस्था
जाबालोपनिषद् में सर्वप्रथम चारों आश्रमों का एक साथ उल्लेख मिलता है, जबकि छांदोग्य उपनिषद् में केवल तीन आश्रमों का । इन सभी आश्रमों में गृहस्थ आश्रम को सर्वोच्च माना जाता है। यह सभी वर्गों में प्रचलित था।
1. ब्रह्मचर्य आश्रम (25 वर्ष तक) - इस आश्रम में मनुष्य बौद्धिक विकास, ज्ञान तथा शिक्ष प्राप्त करता था। ऐसे बालक और बालिका जो जीवन पर्यन्त शिक्षा प्राप्त करते थे, उन्हें क्रमशः नैष्ठिक और ब्रह्मवादिनी कहा जाता था। शिक्षा प्राप्त करने के बाद विवाह कर गृहस्थ जीवन जीने वाले बालक और बालिका को क्रमशः उपकुर्वाण और साधोवधू कहा जाता था ।
2. गृहस्थ आश्रम (25 वर्ष से 50 वर्ष तक) आश्रम को सभी आश्रमों में श्रेष्ठ माना गया है। यह समाज के सभी वर्गों में मान्य था। गृहस्थ आश्रम में ही मनुष्य तीन ऋणों से मुक्ति पाता था। इसी आश्रम में ही की प्राप्ति होती थी ।
त्रिऋण एक मनुष्य को तीन ऋणों से मुक्ति पता था ।1. ऋषि ऋण , 3. देव ऋण , 2. पितृ ऋण
पुरुषार्थ चटुस्य (पुरुषार्थ की अवधारणा) - अर्थ ,धर्म ,काम ,मोक्ष
3. वानप्रस्थ आश्रम : (50 से 75 वर्ष तक) - जब मनुष्य लौकिक जीवन के कार्यों से मुक्ति पा लेता था तब वह पारलौकिक जीवन की तरफ उन्मुख होता था। अतः वानप्रस्थ भौतिक जीवन से मुक्ति का साधन था, परन्तु अब भी व्यक्ति का समाज से सम्बन्ध बना रहता था।
4. संन्यास (75 वर्ष से 100 वर्ष तक) - संन्यास का अर्थ है 'पूर्ण त्याग'। इसमें मनुष्य घर का पूर्ण त्याग, मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से करता था।
संस्कार
संस्कार का सम्बन्ध व्यक्तित्व के परिष्करण से है । गृह्यसूत्रों में निम्न 16 प्रकार के संस्कारों की मान्यता है
1. गर्भाधान 2 पुंसवन 3. सीमंतोन्नयन 4 जातकर्म 5. नामकरण- 6. निष्क्रमण 7. अन्नप्राशन 8 . चूडाकर्म 9. कर्ण वैधन 10. विद्यारम्भ 11. उपनयन संस्कार 12. वेदारम्भ 13. केशान्त 14. समावर्तन 15. विवाह 16. अन्त्येष्टि
विवाह
विवाह एक पवित्र संस्कार माना जाता था। गृह्य सूत्र में आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन मिलता है। ये निम्नलिखित हैं
1. ब्रह्म विवाह इसमें कन्या के व्यस्क होने पर माता पिता के द्वारा सुयोग्य वर से विवाह ।
2. दैव विवाह इस विवाह में कन्या का पिता एक यज्ञ का आयोजन करता था और जो ब्राह्मण यज्ञ का सम्पादन करता था, उसे अपनी कन्या का दान देता था।
3. आर्ष विवाह इसमें कन्या का पिता धर्म कार्य के लिए वर से एक गाय या एक बैल या इनकी एक जोड़ी लेकर वर के साथ कन्या का विवाह कर देता था।
4. प्रजापत्य विवाह इस विवाह के अन्तर्गत कन्या का पिता वर को कन्या प्रदान करते हुए यह आदेश देता था कि दोनों साथ-साथ मिलकर अपने कर्तव्यों का निर्वाह करें।
5. असुर विवाह यह विक्रय विवाह था। इसमें कन्या का पिता वर से कन्या का मूल्य लेकर बेच देता था।
6. गन्धर्व विवाह यह प्रेम विवाह था।
7. राक्षस विवाह इसे अपहरण विवाह भी कहा जाता था। क्षत्रियों में इस विवाह को मान्यता प्राप्त है।
8. पैशाच विवाह जबरदस्ती और बलात्कार आदि करके किया गया विवाह। यह विवाह का सबसे निकृष्ट रूप था।
खान-पान - आर्य माँसाहारी तथा शाकाहारी दोनों प्रकार के भोजन करते थे। भोजन में दूध, दही, घी आदि का विशेष महत्व था। दूध में यव (जौ ) डालकर क्षीरपकौदन तैयार किया जाता था। जी के सत्तू को दही में डालकर करंभ नामक भोज्य पदार्थ तैयार किया जाता था। ऋग्वेद में चावल और नमक का उल्लेख नहीं है।
माँसाहारी भोजन में मुख्यतः भेड़-बकरी के माँस का प्रयोग होता था। गाय को अघन्या ( वध न करने योग्य) कहा गया। ऋग्वेद में मछली का उल्लेख नहीं है। सुरा के पान की निन्दा की गई है जबकि सोम का पान प्रशंसनीय था।
वस्त्र ऋग्वैदिक काल में तीन प्रकार के वस्त्र प्रचलित थे
(1) नीवी ( अधोवस्त्र ) - शरीर के निचले हिस्से में पहना जाने वाला वस्त्र ।
(2) वास (उत्तरीय) शरीर के मध्य भाग में पहना जाने वाला वस्त्र ।
(3) अधिवास (द्रापि) शरीर के ऊपर से ढकने वाला वस्त्र जैसे शाल, चादर आदि।
ऊष्णीय (पगड़ी) भी धारण करते थे।
दास प्रथा ऋग्वेद में दास प्रथा विद्यमान थी। पुरुष और स्त्री दासों का उल्लेख मिलता है। दासो से घरेलू काम कराया जाता था उन्हें खेती के कार्यों में नही लगाए जाते. थे।
आर्थिक जीवन
उनके जीवन में कृषि की अपेक्षा पशुपालन का अधिक महत्व था । गाय की गणना सम्पत्ति में की जाती थी। ऋग्वेद में 176 बार गाय का उल्लेख मिलता है। आर्यों की अधिकांश लड़ाइयाँ गायों को लेकर हुई। ऋग्वेद में युद्ध का पर्याय गविष्टि (गायों का अन्वेषण) है। गाय को अघन्या (न मारने योग्य) अष्टकर्णी (छेदे हुए कान वाली या जिसके कान पर आठ का निशान हो) आदि नामों से भी पुकारा गया है। पणि नामक व्यापारी पशुओं की चोरी ( गाय विशेषतः) करने के लिए कुख्यात थे। एक अन्य प्रकार के व्यापारी 'वृबु' का उल्लेख है जो दानशील थे।
गाय के अलावा दूसरा प्रमुख पशु घोड़ा था। घोड़े का प्रयोग मुख्यतः रथों में होता था।
ऋग्वेद में बैल, भैंस, भैंसा, भेड़, बकरी, ऊष्ट्र (ऊँट) तथा सरामा नामक एक पवित्र कुतिया का उल्लेख है। सिन्धु सभ्यता के विपरीत ऋग्वेद में बाघ और हाथी का उल्लेख नहीं है।
कृषि - ऋग्वेद में पशुचारण की तुलना में कृषि का स्थान गौड़ था। चर्षिणी शब्द का प्रयोग कृषि के लिए किया गया है। जुते हुए खेत को "क्षेत्र" एवं उपजाऊ भूमि को "उर्वरा" कहते थे। "खिल्य" शब्द का प्रयोग परती, ऊसर आदि भूमियों लिए भी किया गया है। हल से बनी हुयी नालियों को "सीता" कहा जाता था। हल के लिए लॉगल एवं बैल के लिए वृक शब्द मिलता है, जबकि हलवाहे को कीवाश कहा गया है।
ऋग्वेद में एक ही अनाज यव अथवा जौ का उल्लेख है। खाद को 'शाकम' अथवा 'करीष' कहते थे जबकि खलिहान को 'खल' कहा जाता था। सिंचाई के लिए दो प्रकार के जलों का उपयोग किया जाता था -
फसल हँसिया (दातृ या सृणि) द्वारा काटा जाता था। अनाज प्राप्त करने के लिए शूर्प (सूप) और तितऊ (चलनी) का प्रयोग किया जाता था। अनाज़ नापने के बर्तन को ऊर्दर कहा जाता था।
उद्योग-धन्धे
ऋग्वेद में बढ़ई, रथकार, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार आदि शिल्पियों के उल्लेख मिलते हैं। ऋग्वेद में बढ़ई के लिए तक्षण तथा धातुकर्मी के लिए कर्मार शब्द मिलता है। सोना के लिए हिरण्य शब्द तथा सिन्धु नदी के लिये हिरण्यी शब्द प्रयुक्त हुआ । ऋग्वेद में लोहा और चाँदी का उल्लेख नहीं है। व्यापार वस्तुतः वस्तु विनिमय पर आधारित था। ऋग्वेद कालीन अर्थव्यवस्था ग्रामीण थी।
धार्मिक जीवन
ऋग्वैदिक आर्यों का प्रारम्भिक जीवन कबायली था। अतः उनके देवता भी प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक थे। यास्क ने अपने ग्रंथ निरूक्त में ऋग्वैदिक देवताओं की मण्डली बनाया है जिनकी संख्या 33 है। इन्हें आकाश, अन्तरिक्ष एवं पृथ्वी के देवता के रूप में विभाजित किया गया है।
आकाश के देवता द्यौं, सूर्य, वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, उषा, अश्विन, सविता, अदिति आदि।
अन्तरिक्ष के देवता इन्द्र, मरुत, रुद्र, वायु, पर्जन्य, आप आदि।
पृथ्वी के देवता अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, सरस्वती और अरण्यानी।
इन्द्र = यह ऋग्वैदिक आर्यों का सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रतापी देवता था। इसे पुरन्दर अर्थात् किलो को तोड़ने वाला कहा गया है। यह युद्ध नेता के रूप में भी चित्रित है। इन्द्र पर 250 सूक्त हैं। इन्द्र को वृत्तासुर हन्ता, पुरभिद् सोमापा , शतक्रति , मधवान (दानी) आदि नामों से जाना जाता है।
अग्नि अग्नि का स्थान इन्द्र के बाद है। इस पर 200 सूक्त हैं। अग्नि देवाताओं और मानवों के बीच मध्यस्थ का कार्य करता था। ऋग्वेद का पहला मंत्र ही अग्नि की स्तुति से प्रारम्भ हुआ है। अग्नि ही एकमात्र ऐसा देवता था जिसे आकाश, अन्तरिक्ष और पृथ्वी तीनों में शामिल किया जा सकता है।
वरुण इसे ऋत् अर्थात् प्राकृतिक सन्तुलन का रक्षक कहा गया है। समझा जाता है कि जगत् में जो भी घटना घटती है वह इसी की इच्छा का परिणाम है। वरुण का एक अन्य नाम ऋतस्य गोपा है। यह ऋतू अर्थात् नैतिक नियमों का संरक्षक था। वरुण को जिंद अवेस्ता में अहुरमज्दा कहा गया है।
सोम वनस्पतियों का अधिपति माना गया है। ऋग्वेद का पूरा 9 वां मण्डल सोम देवता को समर्पित है।
मरुत यह आंधी का देवता था।
अश्विन् आर्यों के चिकित्सक देवता थे।
द्दो - यह आर्यों का सबसे प्राचीन देवता तथा पिता तुल्य है। इसे वृषभ के रूप में प्रदर्शित किया जाता है।
पूषन् – वनस्पतियों एवं औषधियों का देवता। इसके रथ को बकरे द्वारा खींचते हुए प्रदर्शित किया गया है।
उषा यह प्रातः काल की देवी थी सूर्य निकलने की पूर्व बेला को उषा कहा गया।
सविता जब सूर्य चमकने लगता है तब उसे सविता कहा जाता है। ऋग्वेद का प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सविता को ही समर्पित है।
अदिति यह आर्यों की सर्वशक्तिमान या सार्वभौम प्रकृति की देवी थी।
रुद्र ऋग्वेद के 3 सूक्तों में इनका वर्णन है। इनका स्वभाव क्रोधी है। इन्हें शिव का प्रारम्भिक रूप माना गया है।
पर्जन्य वर्षा एवं नदी के देवता।
वृहस्पति यज्ञ के देवता।
सरस्वती ज्ञान की देवी।
अरण्यानी जंगल की देवी
हिरण्य गर्भ- इसकी उत्पत्ति समुद्र से मानी गयी है।
देवियाँ वैदिक धर्म में पुरुष देवताओं का ही आधिपत्य था देवियां बहुत कम थीं सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवी उषा (प्रभात की देवी) थी। अन्य महत्वपूर्ण देवियाँ थीं पृथ्वी (धरा का प्रतिरूप), अदिति दिवों की महामाता), रात्रि (रात्रि की देवी), अरण्यानी (वन देवी), पिशान (वनस्पति की देवी), इला (आहुति की देवी), पुरामधि ( उर्वरता की देवी) आदि।
उपासना का उद्देश्य - ऋग्वैदिक आयों की उपासना का मूल उद्देश्य लौकिक था, पारलौकिक नहीं।
उत्तर वैदिक कालीन संस्कृति
राजनीतिक जीवन
उत्तर वैदिक काल में छोटे-छोटे जन का मिलकर जनपद में परिवर्तित हो जाना। (पुरु+भरत = कुरु), (तुर्वश+क्रिवि = पांचाल)। । ऋग्वेद काल की सबसे प्राचीन संस्था विदथ उत्तर वैदिककाल में समाप्त हो गयी।
राजा की उत्पत्ति का सिद्धान्त सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है। अलग-अलग दिशाओं के राजा के नाम अलग-अलग होने लगे। मध्य देश में वह राजा, पूर्व में सम्राट, पश्चिम में स्वराट , उत्तर में विराट तथा दक्षिण में भोज कहा जाने लगा जो राजा चारों दिशाओं को विजित कर देता था उसे एकराट् कहा जाता था।
अथर्ववेद में राजा परीक्षित का उल्लेख है, जो मृत्युलोक का देवता था। उपनिषदों में कई राजाओं नामों उल्लेख है जैसे- केकय के अश्वपति, काशी के अजातशत्रु, विदेह के जनक, पंचाल के प्रवाहण जैवलि ।
राज्याभिषेक राजा का राज्याभिषेक राजसूय यज्ञ के द्वारा सम्पन्न होता था। राजसूय यज्ञ का - विस्तृत वर्णन शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। रत्निन् ये राज्य के उच्च पदाधिकारी थे जो कुलीन वर्ग से सम्बन्धित थे।
शतपथ ब्राह्मण में सर्वाधिक 12 रत्नियो का उल्लेख है। ये निम्नलिखित थे
सेनानी यह सबसे प्रमुख रत्लिन था।
पुरोहित इसका स्थान दूसरा था।
युवराज राजा का पुत्र
महिषी यह पटरानी थी।
सूत राजा का सारथी ।
ग्रामणी ग्राम का मुखिया
क्षत्ता प्रतिहारी या द्वारपाल
संग्रहीता कोषाध्यक्ष
भागदुध कर एकत्र करने वाला अधिकारी।
अक्षवाप- क्रीड़ा में राजा का मित्र।
पालागल विदूषक का पूर्वज और राजा का साथी एवं वन का अधिकारी।
इसके अतिरिक्त स्थपति (मुख्य न्यायाधीश) लक्षण (बढ़ई) और क्षत्री (कंचुकी) का उल्लेख मिलता है।
उत्तर वैदिक काल में राजसूय यज्ञ की तरह ही अश्वमेध यज्ञ, बाजपेय यज्ञ, अग्निष्टोम यज्ञ एवं सौत्रामणि यज्ञ भी प्रचलित थे। अश्वमेध यज्ञ यह राज्य विस्तार से सम्बन्धित यज्ञ था, जिसमें एक घोड़ा छोड़ा जाता था।
उत्तर वैदिक काल में राजा अपनी प्रजा से कर वसूलने लगा था। इसे बलि, शुल्क या भाग कहा जाता था।शतपय ब्राह्मण में उल्लिखित है कि केवल वैश्य वर्ग ही कर देता था। इसकी मात्रा 1/16 भाग थी। वैश्य द्वारा दूसरे को बलि (कर) देने के कारण उसका एक नाम अन्यस्यबलिकृत तथा अन्यस्याद्य (दूसरे के द्वारा उपभोग में आने वाला) पड़ गया।
ब्राह्मण को मृत्युदण्ड नहीं दिया जा सकता था ।
उत्तर वैदिक काल में राजा कोई स्थाई सेना नहीं रखता था ।
सामाजिक जीवन
समाज में चार वर्ण-ब्राह्मण, राजन्य, वैश्य और शूद थे। यज्ञ का अनुष्ठान बढ़ जाने के कारण ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई। ऐतरेय ब्राह्मण से पता चलता है कि उत्तर वैदिक काल में क्षत्रियों की स्थिति ब्राह्मणों से श्रेष्ठ थी। वैश्य वर्ण कर देता था इसलिए इसके नाम अन्यस्यबलिकृत एवं अन्यस्याद्य पड़ गए। शूद्रों की दशा समाज में निम्न थी। उनका कार्य अन्य वर्गों की सेवा करना था।
आर्थिक जीवन
उत्तर वैदिक काल में कृषि का महत्व बढ़ गया तथा पशुपालन कम हो गया। इन सबका प्रमुख कारण लोहे का प्रयोग था। उत्तर वैदिक ग्रंथों में लोहे को श्याम अयस् अथवा कृष्ण अयस् कहा गया है। लोहे के प्राचीनतम साक्ष्य 1000 ई० पू० के आस-पास एटा जिले में स्थित अतरंजी खेड़ा से प्राप्त होता है।
कृषि उत्तर वैदिक काल में आर्यों का प्रमुख व्यवसाय कृषि था । शतपथ ब्राह्मण में जुताई के लिए कर्षण या कृषन्तः, बुवाई के लिए वपन या वपन्तः, कटाई के लिए लुनन् या लुनन्तः तथा मंडाई के लिए मृणन् या मृणन्तः शब्दों का प्रयोग हुआ है। अतरंजीखेड़ा से जौ, चावल एवं गेहूँ के प्रमाण मिले हैं जबकि हस्तिनापुर (मेरठ जिला) से चावल तथा जंगली किस्म के गन्ने के अवशेष प्राप्त हुए हैं। हल के लिए सीर तथा गोबर की खाद के लिए करीश शब्द का प्रयोग हुआ है। इस काल में चावल के लिए ब्रीहि एवं तंदुल, गेंहूं के लिए गोधूम, पान के लिए शालि, उड़द के लिए माष, सरसों के लिए शारिशाका, साँवा के लिए श्यामांक, अलसी के लिए उम्पा, गन्ना के लिए इच्छु सन के लिए शण आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है
इस काल में कृषि की सिंचाई के साधनों में तालाबों एवं कुओं के साथ पहली बार अथर्ववेद में नहरों का भी उल्लेख हुआ है। अथर्ववेद में अतिवृष्टि, अनावृष्टि से फसलों की रक्षा के लिए मंत्रों का उल्लेख है। फसल मुख्यतः दो प्रकार की होती थी
1. कृष्टिपच्य खेती करके पैदा की जाने वाली फसल
2. अकृष्टपच्य बिना खेती किए पैदा होने वाली फसल
पशुपालन- उत्तर वैदिक काल में गाय, बैल, भेंड, बकरी, गधे, सुअर आदि पशु प्रमुख रूप से पाले जाते थे। हाथी का पालना भी शुरू हो गया था, इसके लिए हस्ति या वारण शब्द मिलता है। हाथी पर अंकुश रखने वाले को हस्तिप कहा जाता था।
उद्योग धन्धे वाजसनेयी संहिता तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण में इस समय के व्यवयायों की सूची दी। गई है। उत्तर वैदिक काल का प्रमुख व्यवसायी कुलाल (कुम्भकार) था। बेंत का व्यवसाय करने वाले को विदलकार कहा जाता था। स्वर्णकार, मणिकार (मणियों का व्यवसायी), कंटकीकार (बॉस की वस्तुएं बनाने वाला), रज्जु-सर्ज (रस्सी बटने वाला), अयस्ताप (धातुओं को गलाने वाला), रजयित्री (कपड़ा रंगने वाली), चर्मकार (चमड़े पर कार्य करने वाला), आदि नाम भी मिलते हैं। इस काल में कुछ धातुओं के नाम भी है जैसे- लोहे के लिए कृष्णअयस्, ताँबे के लिए लोहित-अयस, ताँबे या कासे के लिए अयस, चाँदी लिए रुक्म या रुप्य, सीसा के लिए सीस और शब्द मिलता है। वाजसनेयी संहिता में मछुआरे के लिए दास, पीवर, केवल आदि शब्द मिलते हैं। तैत्तिरीय संहिता में ऋण के लिए कुसीद शब्द तथा शतपथ ब्राह्मण में उधार देने वाले के लिए कुसीदिन शब्द मिलता है।
निष्क, शतमान, पाद, कृष्णल आदि माप की विभिन्न इकाइयाँ थीं।
यह व्यापार अब भी वस्तु विनिमय पद्धति पर आधारित था सिक्कों का अभी नियमित प्रचलन नहीं हुआ था।
धार्मिक जीवन
उत्तर वैदिक काल में सृजन के देवता प्रजापति को सर्वोच्च स्थान मिला। उनमें दो पूर्ववर्ती देव विश्वकर्मा ओर हिरण्यगर्भ समाहित हो गए। रुद्र और विष्णु दो अन्य प्रमुख देवता इस काल के माने जाते हैं। वाजसनेयी संहिता में रुद्र को गिरीश, गिरत्रि और कृत्तिवाश कहा गया। अथर्ववेद में उल्लेख मिलता है कि प्रजापित ने रूद्र को सभी दिशाओं का स्वामी बना दिया। इस काल में वरुण मात्र जल के देवता माने जाने लगे जबकि पूषन अब शूद्रों के देवता हो गए। लौकिक उद्देश्यों के स्थान पर पारलौकिक उद्देश्य अधिक महत्वपूर्ण हो गए।